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चोखे चौपदे


कब नही उसकी चली, कुल ब्योंत ही।
सब दिनों जिस की बनी बाँदी रही॥
माँग पूरी की गई है कब नही।
सिर! तुमारी कर्ब नहीं चॉदी रही॥

सिर! छिपाये छिप न असलीयत सकी।
बज सके न सदा बनावट के डगे॥
सब दिनों काले बने कब रह सके।
बाल उजले बार कितने ही रँगे॥

छोड़ रगीनी सुधर सादे बनो।
यह सुझा कर बीज हित का बो चले॥
चोचले करते रहोगे कब तलक।
सिर! तुमारे बाल उजले हो चले॥

माथा

छूट पाये दॉव-पेचों से नही।
औ पकड़ भी है नही जाती सही॥
हम तुम्हे माथा पटकते ही रहे।
पर हमारी पीठ ही लगती रही॥