चित्रशाला [ द्वितीय भाग] स्वतंत्रता (१) एक दीर्घ निःश्वास लेकर सुखदेवप्रसाद ने कहा-क्या खाई भाग्यवान् हूँ, मैं तो समझता हूँ कि मेरा भाग्य फूट गया ! सुखदेवप्रसाद के मिन्न बिहारीलाल ने कहा-अरे यार, क्यों ईश्वर के प्रति कृतघ्न बनते हो ! ऐसी पत्नी यदि मुझे मिलती, तो मैं अपना जीवन सुफल समझता । सुखदेव०-जान अज़ाब में हो जाती, जीवन सुफल-वफल ताक न होता। बिहारीलाल-श्राप तो हैं पागल ! नाहक कुफ बकते हो। क्यों साहब, उसमें क्या ऐव है ? गाना वह गावे, हारमोनियम वह बजावे, हिंदी वह भली भाँति पढ़-लिख लेती है, अंगरेजी की इंट्रेस तक की योग्यता उसमें है, उर्दू भी थोड़ी-बहुत जानती है, सीने-पिरोने में वह कुशल है-इससे अधिक आप और क्या चाहते हैं ? सूरत-शक्ल में भी सैकड़ों में एक है। ईश्वर जाने इससे अधिक एक स्त्री में और क्या होना चाहिए। सुखदेव० -यह सब ठीक है! विहारीलाल-मगर ? सुखदेव०-मगर फिर भी उसमें कमी है, और वह बहुत बड़ी कमी है।
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