परिणाम . हूँ कि भिक्षुकों के लिये एक ऐसा आश्रम खोलँ जिसमें उन भिक्षुकों को जो किसी प्रकार का परिश्रम नहीं कर सकते और न जिनके लिये उदर-पोषण का कोई अन्य द्वार है, पाश्रय दिया जाय । उन्हें भोजन- चन दिया जाय । और जो ऐसे हैं कि परिश्रम कर सकते हैं किंतु केवल पालन्य-वश परिश्रम नहीं करते अथवा उन्हें कोई काम नहीं मिलता, वे भी उस आश्रम में रखे जायें और उन्हें कोई उद्योग- धंधा सिखाया जाय । जब वे सीख जाय तब उन्हें काम दिया जाय अथवा उन्हें कहीं नौकरी दिलाने की चेष्टा की जाय । क्यों, तुम्हारा क्या विचार है? छेदी-बड़ी अच्छी बात है । भाई, जब म्यूनीसिपलेटी ने हम लोगों की मडैयाँ उखड़वाकर फिकवा दी थीं तब मैं क्या बताऊँ। ऐसे-ऐसे भाई जो अपाहिज थे, कहीं चल-फिर नहीं सकते थे, वे पानी और धूप में पड़े-पड़े मर गए। उनकी ओर किसी ने आँख उठाकर भी न देखा। रामलाल-बड़े दुःख की बात है, क्या म्यूनीसिपलेटी में ऐसे- ऐसे हृदय-हीन लोग भी है कि वे ऐसा करने की सम्मति दे देते हैं। राम राम ! पूछो, वे उनका क्या लेते थे, खाली सड़क पर एक कोने में पड़े हुए थे । खैर ! भिक्षुकों के कष्ट को एक भिक्षुक ही समझ भी सकता है। अतएव मैं अपना शेष जीवन भिक्षुकों को सहायता देने, उनका सुधार करने, में ही व्यतीत करूँगा। .
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