पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/७३

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परिणाम . होकर मैं सीधा मजदूरों के अड्डे पर पहुँचा । भाग्य-वश उसी दिन मुझे मज़दूरी मिल गई । उस दिन शाम को जब मुझे मजदूरी के पैसे मिले, तो उन्हें देखकर मेरे हृदय में एक हार्दिक प्रसन्नता हुई । यदि भिक्षा में मुझे कोई उसका चौगुना दे देता, तो मैं उतना प्रसन न होता जितना कि इन पैसों को पाकर हुआ। जिस समय उन पैसों को देखकर मैं सोचता था कि ये मेरे परिश्रम के पैसे हैं मेरी गाढ़ी कमाई है-उस समय बड़ा ही संतोप होता था। खैर ! मैं बराबर मजदूरी करता रहा । श्यामा भी मेरे साथ ही रहती। एक बड़ी इमारत बन रही थी, उसी में मैं काम करता था। जिनकी इमारत बन रही थी उन्होंने मेरी श्यामा पर दया करके मुझे उसी स्थान पर रोटी बना लेने और रात को पड़ रहने की आज्ञा दे दी थी। इससे बड़ी सुविधा हुई, क्योंकि श्यामा को कहीं अकेली छोड़ भी नहीं सकता था और न मज़दूरी पर प्रत्येक समय अपने साथ ही रख सकता था। इसी प्रकार छः महीने बीत गए। छः महीने में उनके यहाँ का काम समाप्त हो गया । तब फिर मैं इधर-उधर मजदूरी की तलाश करने लगा। चार-पाँच दिन तक बेकार रहने के पश्चात् फिर मजदूरी लगी। छः महीने उस काम में व्यतीत हुए । साल- भर में मैंने अपनी मजदूरी में से खा-पीकर सौ रुपए के लगभग बचा लिए । जिन दिनों में मैं मजदूरी करता था उन दिनों मैंने लोगों से सुना था कि कलकत्ते में लक्ष्मी का वास है । वहाँ जो जाता है, वह खूब रुपया पैदा कर लेता है । अतएव जय छः महीने पश्चात् वहाँ से भी जवाब मिल गया तब मैं एकदम, बिना सोचे-समझे, कल- कत्ते चला गया। कलकत्ते पहुँचकर मुझे यह तो मालूम हो गया कि यहाँ लक्ष्मी का वास है; पर मेरे लिये वहाँ पेट पालना तक कठिन हो गया । दो महीने तक लगातार बेकार घूमता रहा । जो रुपया कमाया था, ..