चित्रशाला पिता ने उत्तर दिया- नहीं बेटा, ऊनी कपड़ों में जादा नहीं जगता । बालिका ने फिर कुछ देर तक कुछ सोचा । कदाचित् वह उस सुख की कल्पना करने की चेष्टा करती थी जो ऊनी कपड़े पहनने से मिलता है। परंतु कदाचित् वह उसकी कल्पना नहीं कर सकी, इसीलिये उसने पुनः कहा-यावा, जादा तो जरूर लगता होगा । पिता ने वालिका की इस बात का कुछ उत्तर न दिया । उसका ध्यान इस समय केवल इस बात पर लगा हुआ था कि किसी प्रकार शीघ्र ढेरे पर पहुँचकर भाग ता । लगमग बीस मिनट तक चलने के पश्चात् ये दोनों एक स्कूल के पास पहुंचे। उस स्कूल की चहारदीवारी बहुत ऊँची तया लंबी थी। उसी बहारदीवारी के नीचे कुछ सिरकी तथा फूस के इप्पर याँसों पर छाए हुए थे । यही स्थान भिक्षुक का डेरा था । इसी स्थान पर दस-बारह भिक्षुकों ने जन तथा धूप से बचने के लिये यह प्रबंध कर लिया था । भिक्षुक के वहाँ पहुँचते ही तीन-चार अन्य मिखारियों ने, जो श्राग जलाए हुए थेट ताप रहे थे, कहा-या गए भैया? आज बड़ी देर लगाई। मिक्षुक ने सिर की लकड़ियाँ भूमि पर पटककर कहा-हाँ भैया, श्राज देर हो गई । दिन-भर कुछ मिना नहीं । इसी मारे दौड़े-दौड़े फिरते रहे। . एक भिक्षुक ने पूछा-तो कहो कुछ मिला कि नहीं ? मिचुक ने कहा-हाँ भैया, कुछ-न-कुछ तो मिल ही गया । सेर भर पाटा और थोड़ी दाल मिल गई है-पेट भरने को बहुत है। एक अन्य भिस्वारी ने कहा-तो भैया तुम मज़ में रहे। हमें तो श्राज माध सेर चने और दो पैसे मिले। एक तीसरा व्यक्ति बोजा-मैया, जो भाग का होता है, वही मिलता है। न रत्ती भर अधिक न रत्ती भर कम ।
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/५८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।