पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/५२

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ए चित्रशाला 1 पानी ने मेज़ की दराज में एक बंद लिफ्राफा निकालकर पति को दिया मोहनलाल ने उसे तुरंत फाड़ डाला। उसमें से एक लंबा पत्र निकला। पत्र में लिखा था- "प्यारे मोहन, यद्यपि मैं यह पत्र प्रछी दशा में लिख रहा हूँ, परंतु तुम्हारे हाथों में उस समय पहुँचेगा, जब मेरा अंत-समय अत्यंत निकट दोगा। मोइन, तुम मनुष्य नहीं, देवता हो। तुम्हारा सा व्यक्ति जिसका मित्र हो, संसार में उसके बराबर भाग्यशाली और कौन हो सकता है ? परंतु, मित्र, चौना नहीं, तुमसे मित्रता करने के कारण ही श्राज मुझे यह संसार छोड़ना पड़ रहा है। विश्वास रखो, इसमें तुम्हारा लेश-मात्र दोप नहीं, दोप मेरे भाग्य का है । तुम कारण जानने के लिये उत्सुक हो रहे होगे। कारण बताता हूँ। विचलित न होना । क्रोध न करना । शांत भाव से संपूर्ण पत्र पढ़ दालना, फिर मेरे संबंध में जो उद्गार तुम्हारे हृदय में उत्पन्न हों, उन्हें निकाल लेना । साज-भर की बात है, जब बरेली में पैसेंजर ट्रेन का डिरेलमेंट (पटरी से उतर जाना) हुश्रा था। मैं मेल ट्रेन से बख. मऊश्रा रहा था । तुम भी उसी ट्रेन पर लखनऊ पा रहे थे में ट्रेन में छाता भूल गया था, उसे लेने के लिये फिर लौटा । श्राह मैं किस बुरी घड़ी में छाता गादी में छोड़ गया था ! निस्संदेह वह मेरे जीवन की महाअशुभ घड़ी थी। कौन जानता था, छाता लेने के लिये लौटकर थाना मेरी नृत्यु को इतनी जल्दी बुला लेगा। मैं छाता लेने को लौटता और न प्रान मुझे संसार से इतनी अल्प अवस्था में विदा होना पड़ता। परंतु विधना की रचना को कौन मिटा सकता है ? छाता लेने को जाते समय मेरी तुमसे बात. चीत हुई। तुम्हारी वेबसी और कष्ट देखकर मेरे हृदय पर चोट न