भी टपार्जन करना चाहिए। परंतु नहीं, मैं इतनी सरन्ती नहीं करना
चाहता, मैं तुम्हारी कमजोरियों को समझता हूँ।
प्रियंवदा-हे ईश्वर ! तो क्या मुझे अब अपने भोजन-धन के लिये
धन भी कमाना पड़ेगा?
सुखदेव यह तो तुम्ही समझो। मैं तो केवल इतना समझना
हूँ कि जब तक तुम भोजन-बस्त्र के लिये मुझ पर निर्भर हो, तब तक
तुम पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं हो।
[-क्या पति का यही धर्म है कि अपनी पत्नी से धनो.
पानन करने को कहे?
सुखदेव 10-जब पती का यह धर्म है कि प्रायेक बात में पति के
सामने स्वतंत्रता तथा अधिकार के सिद्धांत की दुहाई दे, तब पति
का भी यही धर्म है कि पत्नी को जहाँ तक संभव हो सके, पूर्ण रूप
से स्वतंत्र बना दे।
इवना सुनते ही प्रियंवदा ने रोना प्रारंभ किया। रोते-रोते
बोलीं-मुझे इस प्रकार जलाने में तुम्हें कुछ अानंद साठा है ?
सुखदेव० ... मुझे तो तुम्हें पूर्ण रूप से स्वतंत्र कर देने में पानंद
भाता है। मेरे अानंद की परा काटा तो उस दिन होगी..
जिस दिन तुम अपने भरण-पोपण के लिये चार पैसे पैदा
करने लगोगी।
प्रियंवदा-प्रोम! श्रव नहीं सहा जाता ! तुम्हें अपनी पत्नी से
ऐसे शब्द कहते लाज नहीं लगती?
मुन्नदेव 10-जय पनी स्वयं काज-शर्म को तिनांजलि दे बैटी, तव
मेरे रस्ने ताज-शर्म कब तक रहेगी ? अभी तो तुम्हारी स्वतंत्रता में
योड़ी कसर बाकी है!
नियंवदा-माड़ में जाय स्वतंत्रता, मैं ऐसी स्वतंत्रता नहीं चाहती :
सुखदेव०-तो फिर क्या चाहती हो ?
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/२५
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चित्रशाला