शर्म से पसीने-पसीने हो गई और म्नान मुख होकर चुपचाप.अपनी कुर्सी
पर श्रा बैठी। फिर हथेली पर गाल रखकर विचार-सागर में डूब गई।
इस घटना के दो दिन पश्चात् प्रियंवदा ने पति से कहा-मालूम
होता है, तुमको मुझसे प्रेम नहीं रहा ।
सुखदेव०-प्रेम हो या न हो, इससे तुम्हें क्या मतलब ? तुम्हें मैंने
पूर्ण स्वतंत्रता दे रक्खी है, क्या इतने से तुम्हें संतोष नहीं है ?
प्रियंवदा-क्या मेरे प्रति तुम्हारा कर्तव्य इतने ही से समाप्त हो
जाता है ?
सुखदेवप्रसाद धृणा से मुसकिराकर बोले- कर्तव्य ! कर्तव्य की
बात मत करो । स्वतंत्रता और अधिकार की बात करो। अपने
इच्छानुसार कार्य करने के लिये तुम स्वतंत्र हो और स्वेच्छानुसार
कार्य करने के लिये मैं स्वतंत्र हूँ, कर्तव्य को बीच में घसीटना व्यर्थ है
प्रियंवदा-व्यर्थ कैसे ? प्रत्येक पति का अपनी पत्नी के प्रति कुछ
कर्तव्य होता है।
सुखदेव०-मैं फिर कहता हूँ-कर्तव्य की बातें मत करो।
प्रियंवदा का मुख तमतमा उठा । उसने बड़े श्रावेशपूर्वक कहा-
पर्तव्य की बातें फैसे न कहूँ ? क्या तुम समझते हो कि मैं केवल
स्वतंत्रता और अधिकार प्राप्त हो जाने से ही सुखी हो सकती हूँ?
मेरा
कुछ
अधिकार है।
सुखदेव०-हाँ, अधिकार क्यों नहीं है। अधिकार बहुत कुछ है।
मुझ पर तुम्हारा इतना ही अधिकार है कि तुम स्त्री होने से अबला'
हो और इसलिये मैं तुम्हारी रक्षा करता हूँ-वस, तुम्हारा इतना ही
अधिकार है। यदि मैं तुम्हारी रक्षा न कर सकूँ, तुम्हें भोजन-वन न
दे सक्, तो तुम शिकायत कर सकती हो । यद्यपि न्याय से तो यह
होना चाहिए कि जब तुम पुरुषों के बराबर अधिकार तथा स्वतंत्रता
'चाहती हो, तो तुम्हें स्वयं ही अपने भोजन तथा वस्त्र के लिये धन
-
,
तुम पर भी तो
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स्वतंत्रता