दिनों तक स्थिर न रह सकी । सुखदेवप्रसाद ने वैसे तो उन्हें सब
तरह की स्वतंत्रता दे दी थी और प्रियंवदा देवी को सारे सुम्न प्राप्त
हो गए थे; पर फिर भी वह सुखी न थीं । उनके मुखी न होने का
कारण यह था कि एक तो घर में उनसे सब लोग शुष्क व्यवहार
करने लगे थे, टनकी सास देवो भी टनसे यावश्यक बात के अतिरिक्त
और कभी कोई बात न करती थीं; और इधर सुखदेवप्रसाद कमी
भूलकर भी उनसे प्रेमालाप न करते थे। यद्यपि प्रियंवदा
उनका व्यवहार अत्यंत नन्त्र, शिष्ट तया श्रादरपूर्ण या, पर प्रेम की
'संमें कहीं गंध तक न थी। केवल नत्र, शिष्ट तया श्रादरपूर्ण व्यव-
हार से प्रियंवदा देवी तृप्त न होती थीं । सब शोर से संतुष्ट होने
पर प्रियंवदा के हृदय में प्रेम की तृष्णा बढ़ी। परंतु इस संबंध में
सुत्रदेवप्रसाद बिलकुल उदासीन थे। प्रियंवदा ने पति के हृदय में
अपने प्रति प्रेम उत्पन्न करने की चेष्टा प्रारंभ की । नित्य भाँति-माति
के श्रृंगार करती, अनेक मोहन हाव-भाव तथा अन्य चेष्टाएँ करती;
परंतु सुखदेवप्रसाद का हृदय क्या था, एक हिम-शिता था, जिसमें
प्रेम की टप्णता टत्पन्न ही नहीं होती थी।
एक दिन सुखदेवप्रसाद के सिर में दई रठा। वह दर्द की शिकायत
करके पलंग पर लेट रहे।
प्रियंवदा देवी थोड़ी देर तक तो कृसी पर बैठी पुस्तक पढ़ती रहीं।
इसके उपरांत बोलीं-बहुत दर्द हो तो दाब।
मुखदेव-नहीं, ऐसा अधिक नहीं है।
प्रियंवदा देवी चुप हो गई। परंतु उन्हें चैन न पड़ी। थोड़ी देर
में वह उठकर पति के सिरहाने बैठ गई और टनका सिर दाबने लगी।
टन्होंने सिर में हाय लगाया ही था कि मुनदेवप्रसाद ने टनका हाय
पकड़ लिया और कहा--विना मेरो सम्मति जिए तुम्हें मेरे शरीरामें
हाय बगाने का कोई अधिकार नहीं । इतना सुनते ही प्रियंवदा देवी
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चित्रशाला