सोचकर योले-यह तो बड़ी विचित्र बात है। मैं इसमें क्या सहायता
कर सकता हूँ?
सुखदेवप्रसाद ने पिता को अपनी पत्नी के प्राचार-विचार बता.
दिए और उसको स्वतंत्र कर देने की बात भी यता दी । सब बातें
समझाकर वोले-अब मैं उसे इतनी स्वतंत्रता देना चाहता हूँ कि
उसे स्वतंत्रता का श्रजीणं हो जाय-तभी वह रास्ते पर श्रावेगी।
अतएव में जो कुछ कहूँ, उस पर आप कोई आपत्ति न करें और
माताजी को भी समझा दें कि वह भी कुछ न कहें।
पिता ने बहुत कुछ सोच-समझकर मुसकिराते हुए कहा-अच्छी.
बात है, मगर कोई कार्य ऐसा न करना,
में वहा लगे।
यह अच्छी रही ! मैंने पढ़ी-लिखी लड़की यह समझकर ली थी.
कि धर-द्वार का अच्छा प्रबंध करेगी, सब बातों का सुख रहेगा।
मुझे यह क्या मालूम था कि उनटे गले का भार हो जायगी। खैर,
अब तो जो होना था, हो ही गया ।
उसी दिन सुखदेवप्रसाद प्रियंवदा देवी को अपने साथ गादी पर
घुमाने ले गए।
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क्रमशः यहाँ तक नौवत पहुंची कि प्रियंवदा देवी नित्य पति के.
साथ घूमने जाने लगीं। इसके अतिरिक्त वायस्कोप, थिएटर इत्यादि
में भी पति के बगल में ही बैठने लगी। उन्हें इस कार्य से मित्रों के
सामने बहुत ही लजित होना पड़ा। सब कहने लगे- अब तो
सुखदेवप्रसाद बिलकुल साहब हो गए, जब देखो, जोरू बग़ल में है।
परंतु बेचारे करते क्या, चुपचाप सब सुनते थे।
इसी प्रकार कुछ दिन व्यतीत हुए। पहले तो मियंवदा देवी इन
सब बातों से उतनी ही प्रसन्न हुई, जितना कि एक पक्षी पिंजरे में
से मुक्त होकर प्रसन्न होता है। परंतु उनकी यह प्रसन्नता अधिक.
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स्वतंत्रता