पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/२१

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चित्रशाला

पिशाखा सुखदेव-बाहर घूमने जाता है। प्रियंवदा-पैदल या गाड़ी पर ? मुखदेव०-मादी पर। प्रियंवदा--मैं भी चलूँगी। सुखदेव० -श्या मेरे माय? प्रियंवदा हों। मुखदेव०-पदी सुंदर बात है पर माता चौर पिताजी युरा न माने। प्रियंवदा--माने तो माना फरें, मैं कहाँ तक घर में घेठी-बैठी घुटा कहें। सुग्नदेव-मासाजी के साथ तो गंगाठी तया इधर-टधर घूमने जाती रहती हो। प्रियंवदा-उनके साथ जाने से क्या लाभ ? यह गाड़ी के द्वार वंद रसती है-शुद्ध वायु नसीब नहीं होती। तुम्हारे साथ जाने में कुछ तो स्वतंत्रता रहेगी। अब सुन्न देवमसाद बड़े धर्म-कट में पड़े। उन्हें स्वयं इस कार्य में कोई भापत्ति न थी, परंतु माता-पिता का भय लगा हुआ था। अंत को उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचार कर १२ मे कहा-अच्छा फपड़े पहनी पनो से यह कहकर वह स्वयं पिताजी के पास पहुंचे और उनसे योले-पितानी, माज एक बड़े महत्वपूर्ण कार्य में मैं श्रापकी सहायता चाहता हूँ। पिता-कैसा कार्य पेटा? क्या कार्य ? पुत्र-बात यह है कि श्रापकी बहू खियों की स्वतंत्रता और अधिकार के फेर में है, जरा उसे ठाक रास्ते पर लाना है, परंतु यह चमी हो सकता है, जब श्राप इसमें मेरी पूरी सहायता करें । पिता दो पुन की बात सुनहर घाश्चर्य हुना। कुछ देर तक