- ईश्वर का डर १८३ और कुछ कहता, तो मार पड़ती। फिर यही हुआ कि अपने कान के लिये पाँच आने रोज़ का मजूर रखना पड़ा। दो पाने हमें मिलते थे, और पाँच श्राने हम देते थे। कालका-मद्या काहे को लगवाया था ? वही व्यक्ति जो सिवाला बनवाया है, उसी के लिये भट्ठा लगवाया था। कालका-~-बारीबों का गला काटकर सिवाला बनवाने में कौन ननकू- -~अब यह उनसे कौन पूछे ? वही व्यक्ति-भैया की बातें ! इतना पूछना तो बड़ा काम है । जरा-जरा-सी बातों में तो पीठ की खाल उड़ा दी जाती है। इतना जो कोई कह दे, उनसे न सही, किसी दूसरे ही से कहे, और वह सुन पाचे, तो खोदके गढ़वा दें। दिल्लगी थोड़े है। छोटे-मोटे जमींदारों की तो मजाल ही नहीं कि उनकी बात को दुलखें, फिर किसान बेचारे किस गिनती में हैं। सधुवा-भैया, हमारे तो सब करम हो गए । श्रावरू-की-श्रावरू गई, और माल गया घाते में। ननकू-माल तो, हाँ, गया ही, पर श्राबरू जाने की कोई बात नहीं । गाँव-भर समझ गया है कि यह गकुर साहब की गदंत थी। कालका-हाँ सब जान मले गए हों, पर फहने-सुनने को तो हो गया। वह जो कहते हैं कि 'थाली फूटी या न फूटी, मनकार तो हुई। सधुवा-जो कुछ पल्ले था, वह चला गया, ऊपर से डाकुर साहब के पचास रुपए के कर्जदार हो गए । भैंस पर ठाकुर का दाँत है । सो भैंस तो हम दिवाल है नहीं, रुपया और व्याज दे देंगे। नन-यही तुम्हारी भूल है । भैस दे दोगे, तो मजे में रहोगे
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