१८० चिनशाना . सधुवा--तो जैसा सरकार कहें । ठाकुर-कहना क्या है, देयो। पचास रुपए की तो यात ही है। सब मामला यही रफा-दफ़ा हुया जाता है । सधुवा उसी समय घर दौड़ा हुया गया । लौटकर उसने टेढ़ सौ रुपए ठाकुर साहय के हाथ में धरे । रुपए देते समय उसकी धुरी दशा थी। मानों अपने पुत्र को बचाने के लिये अपना फलेजा निकालकर दे रहा हो। ठाकुर-ये तो ढेद ही सौ है । सधुवा-हाँ मालिक, इतने ही थे । पचास तुम अपने पास से दे दो। चाहे फसल पर सूद-व्याज लगाकर ले लेना, और चाहे मेरी भैस सत्तर रुपए का है, वह ले लो। रुपए तो और ई नहीं। ठाकुर-अच्छी बात है । ठाकुर साहब ने यानेदार को अलग ले जाकर पचास रुपए यमाए,. और बोले-नारीव आदमी है। इससे अधिक नहीं दे सकता । थानेदार साहब ने कौन गेहूँ वेचे थे। इतने भी उन्हें ठाकुर साहब फी कृपा से पड़े मिले । अतएव उन्होंने धन्यवाद-पूर्वक रुपए ले लिए। कालका उसी समय छोड़ दिया गया। अधिकांश लोगों ने यही समझा कि कालका दोपी था पर ठाकुर साहब की कृपा से छूट गया। जो समनदार थे, और जिन्होंने कुछ समझा, वे भी चुप रहने के सिवा और क्या कर सकते थे। किसकी मजाल थी कि ठाकुर साहय और थानेदार के विरुद कुछ कह सके। 1 - रात को सधुवा, काल तया गाँव के दो-चार अन्य प्रादमी सधुवा की चौपाल में बैठे बातें कर रहे थे। एक आदमी कह रहा था-मैया, नाक-नाक बदता हूँ, यह सब चान ठाकुर साहब की ही है। न कहीं चोरी हुई, न चबारी।
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