१७१ चित्रशाला . . यजे हों चाहे ग्यारह, वस, ऐसा ही बखत होगा, तय में पेसाय करने को उठा। पेसाव करके जब लौटने लगा, तो मैंने बिदा महराज के घर के पास दो श्रादमियों को बड़े कुछ बातें करते देखा ! बस, सरकार, मैंने खसारा । मेरा खखारना सुनकर वे दोनों चुप हो गए, और वहाँ से चल दिए । मैंने पूछा--कौन है ? इस पर वे न बोले ! तव फिर मैंने डॉटकर पूला-कौन जाता है ? बोलता नहीं ? तब सरकार एक वोला-हम तो कालका है । यस, सरकार, फिर मैं घर में जाकर सो रहा । सवेरे उठकर सुना कि विदा महराज के यहाँ चोरी हो गई । इतनी यात, जो मैंने आँखों से देखी, वही इनसे भी कह दी । और कुछ मैं जानता बानता नहीं। ठाकुर साहब कुछ देर तक सोचकर बोले-सबूत तो पूरा है। अच्छा, कालका को बुलवायो । तुरंत श्रादमी गया, और काजका को बुला लाया । साय में कालका का वृद्ध पिता सधुवा मी लाठी टेकता हुश्रा श्राया। ठाकुर चंदनसिंह ने उसमे कहा-कत रात को बिदा महाराज के यहाँ चोरी हो गई है। कालका बोला-हाँ मालिक, सबेरे मैंने भी हहा सुना था। 'बड़ा ग़ज़व हुया। ठाकुर-कल रात को तुम कहाँ थे ? भयभीत होकर वोला कल तो, मालिक, मैं घर ही पर था । कालका का पिता सधुवा बोल उठा- सरकार, यह तो कल साँझ ही से खा-पीकर सा गया था । ठाकुर साहव ने कहा -कज रात को ग्यारह बजे लोगों ने तुम्हें विदा महराज के घर के पास एक आदमी से वातें करते देना था। कालका
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१८०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।