पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१७७

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ईश्वर का डर 1 फालका-मालिक, सहर चला गया था। साल-भर वहींरहा। ठाकुर-शहर में क्या करता रहा? फालका-नोकरी करता हूँ। ठाकुर-हाहे में नौकर है। कालका-देरी फारम में ? ठाकुर क्या सरकारी डेरी फारम में ? फालका-नहीं मालिक, एक महाजनी डेरी फारम है । ठाकुर चंदनसिंह 'ई' करके चुप हो गए। उनके माथे पर चल पड़ गए। थोड़ी देर तक चुपचाप हुक्का पीते रहे। फिर बोले-सुनो कालका, श्राज तो हम तुम्हें छोड़े देते हैं, पर अब जो कभी हमारे सामने यह ठाठ बनाकर श्राए, तो ठीक न होगा। जैसे हो वैसे ही रहना ठीक है कालका काँप उठा। उसे स्वप्न में भी यह श्राशा न थी कि ठाकुर साहय को उसके इन साधारण कपड़ों में भी ठाट की झलक दिखाई पढ़ेगी। उसने सोचा, यहाँ से टल जाना ही अच्छा है। यह सोच वह 'जुहार' करके वहाँ से चलता बना। उसके चले जाने पर ठाकुर चंदनसिंह बोले- -मालूम होता है, इसने शहर में रहकर मात पैदा किया है। बाप की तो गोवर ढोते- ढोते उमर वीत गई, और सावित लंगोटी तक न जुड़ी! एक मुसाहय, जिसका नाम सुघरसिंह था, बोला-मालिक, इसने रुपया कमाया है। अभी उस रोज एक सत्तर रुपए की भैंस मोल ली है । तकिए के मेले से एक जोड़ी बैलों की भी लाया है। ठाकुर चंदनसिंह बोले-हाँ ? सुवरसिंह-मैं आपसे झूठ थोड़े ही कहता हूँ। अकुर चंदनसिंह बोले-इतना माल पैदा किया, और हमें दो रुपए नज़र तक के न, दिए ! -