ईश्वर का डर । ठाकुर चंदनसिंह दस मौजों के जमींदर हैं। उनकी जमींदारी उनके निवास-ग्राम के चारों ओर के ग्रामों में है। अतएव छा-सात कोस के इर्द-गिर्द उनका पूरा राज्य है। ठाकुर चंदनसिंह वैसे ही ज़मींदार हैं जिन्होंने सहृदयता तथा मनुष्यस्व का मूल्य सनमनेवालों के हृदयों में जमींदारों के प्रति घृणा-पूर्ण विरोध का भाव उत्पन्न कर दिया है। वह ग़रीव प्रजा का रक्त चूसना ज़मींदारी का भूपण समझते हैं । अनुचित वेगार लेना उनका जन्म-सिद्ध अधिकार है । साधारण सड़ी-सी बात पर दीन-दुखियों को पिटवा देना उनके लिये एक ज़मींदारी शान है । जो ग्राम टनकी जमींदारी में नहीं है, उनकी प्रजा भी उनसे थर-थर काँपती है । क्या मजाल कि ठाकुर चंदनसिंह के प्रनिकल कोई च तक कर सके! दोपहर का समय था । ठाकुर चंदनसिंह अपने पक्के मकान की चौपाल में बैठे हुए हुक्का पी रहे थे। उनके पास उनके दो-चार मुसाहब मो वैठे थे। उसी समय एक कृपक एक उजली मिरज़ई पहने, एक. मोटी सफ़ेद धोती (जो घुटनों के कुछ ही नीचे तक यी) तया सिर पर एक घुला कपड़ा लपेटे ठाकुर के सामने आया, और दोला- "जुहार मलिको !" माकुर साहब ने केवल जरा यों ही सिर हिला दिया । कृपक एक ओर भूमि पर बैठ गया । ठाकुर साहब कुछ देर तक उसकी ओर देखते रहे। तत्पश्चात् बोले-"कौन है ३?" कृषक बोला-सरकार में तो आपका अहीर हूँ, कालना। जकुर साहव बोले-कालका है-हूँ---अव तो पहचान ही नहीं पड़ता। बहुत दिनों में दिखाई पड़ा । कहाँ था ?
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