पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१७०

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१६४ चित्रशाला कि शेख साक्ष्य अपने दोमंजिन्ले पर खड़े है, और नीचे सपादवना और टनका लड़का लड़ा है। मादतनों शेन साहब को गालियाँ ६ रहे थे-प्रये यो काफिर, नीचे टतर, अाज तुझ मी हिंदुओं के साथ न झुम पहुँचा हूँ । यये श्री मरद, रतरता क्यों नहीं ? जब देखो, घरामजादा हिंदुओं की हिमायत करता था । अब कुछ हिम्मत हो, तो मदों के सामने श्रा। यह देखकर पहले तो पांडेयजी ने एक जोर की प्रावाज जगाई कि दिद-भाइयो, तुम्हें शर्म नहीं पाती कि तुम्हारे एक भाई के प्राय संकट में हैं और तुम सब चूड़ियाँ पहने घर में बैठे हो । इससे तो तुम जन्म लेते ही मर गए होते, तो अच्छा था । देखा, मैं श्रागे चलता हूँ। जिसको पाना हो, मेरे पाद श्रावे । यह कहकर पांडेयजी अपने नौकर-साहित उधर चले । पहले सादतवाँ से मुठभेड़ हुई। पांढयजी ने कहा-सादसना, शेख साहब को क्यों गालियां देते हो ? उनका क्या कुसूर ? जो कुछ कहना हो, मुझसे कहो। पांडेयजी को देखते. ही सादतनां चिल्ला उठा-इस हरामजादे को मारो, खूब मारो ! यही सारे फसाद की जड़ है । यह सुनते ही तीन-चार मुसलमान पांडेयजी की ओर बढ़े। पांडेयजी ने सश्रादतनों से कहा- साहब, अफसोस यही है कि श्राप मेरे पड़ोसी हैं। मैं पढ़ोसी और भाई का एक ही दर्जा समझता हूँ, वरना अभी तक श्रापकी लाश पड़ी होती । यह सुनते ही रहमतअनीनों ने लाठी उठाकर यह कहते हुए पांढयनी पर चार फिया-श्रो नजिस कुत्ते, तेरा भाई कहीं जहन्नुम में पड़ा होगा! पांडेयजी नत श्रादमी थे, इस लोंढे के वार को क्या समझते। उन्होंने अपनी लाठी पर उसकी लाठी रोककर तुरंत टलमावे से लाठी -