-- कर्तव्य-पालन श्राग की तरह दोनों ओर ऐसे लोगों का प्राधिक्य था, जो लोगों में एक दूसरे के प्रति घृणा तथा क्रोध की थाग भड़काने में लगे हुए थे। रुई की : यद्यपि बाहर से असंतोष तथा द्वेष के कोई स्पष्ट चिह्न प्रतीत नहीं होते थे, परंतु भीतर ही भीतर खूब आग फैल रही थी। मुसलमान हिंदुओं के और हिंदू मुसलमानों के रक्त के प्यासे हो रहे थे। पं. गंगाधर उन इने-गिने श्रादमियों में से थे, जिन्हें धार्मिक द्वैप छू तक नहीं गया। जिस प्रकार वह मंदिर के अनादर को सहन नहीं कर सकते थे, उसी प्रकार मसजिद के अनादर को भी । उनका सिद्धांत था कि सभी धर्मों में कुछ-न-कुछ सार अवश्य है । जो जिस धर्म में उत्पन्न हुआ है, उसे अपने ही धर्म में रहना और दूसरों के धर्म का आदर करना चाहिए । धार्मिक स्वतंत्रता सबको समान रूप से प्राप्त रहनी चाहिए । जो धर्म दूसरे धर्म का अनादर करने की शिक्षा देता है, वह धर्म नहीं, अधर्म है । जब कभी उनसे और किसी हिंदू से पातचीत होती और वह इनके सिद्धांत सुनता, तो यह समझता था कि पांडेयजी मुसलमानों का पक्ष लेते हैं । उनके मुंह पर तो नहीं, परंतु पीठ-पीछे लोग कह दिया करते थे-"अाखिर मुसलमानों के पड़ोस में रहते हैं न, कहाँ तक प्रभाव न पड़े ! ऐसे ही लोग समय पड़ने पर चोटी कटाकर मुसलमान हो जाते हैं ।" कभी-कभी पांडेयजी के कानों तक भी यह बात पहुँच जाती थी ; परंतु वह सुन लेते थे और मुसिकिराकर चुप रह जाते थे। एक दिन रात को मुहल्ले के तीन-चार आदमी पांडेयजी के मकान पर पहुंचे। उस समय वह भोजन करके कमरे में बैठे 'लीडर' पद रहे थे। लोगों को देखते ही उन्होंने मुसकिराकर कहा-आइए, आज यह इन किधर भूल पड़ा ?
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