पथ-निर्देश । दिन के बाद उसने अपनी रिपोर्ट इस प्रकार दी-"दस्तावेज़ निःसंदेह जाली मालूम होता है। महाअलेह के असली हस्ताक्षर में और दस्तावेज़ पर किए गए हस्ताक्षरों में फर्क है। यद्यपि यह फर्क बहुत बारीक है ; फिर भी एक विशेषज्ञ को भ्रम में नहीं डाल सकता। इसके अतिरिक्त बैरिस्टर विश्वेश्वरनाथ की गवाही अभी हाल ही में की हुई मालूम होती है ; क्योंकि जिस स्याही में बैरिस्टर साहब के हस्ताक्षर हैं, वह रंग में तो दस्तावेज़ की स्याही से मिलती है, पर उतनी पुरानी नहीं है, जितनी कि दस्तावेज़ की । रासायनिक क्रिया करने से उसका नयापन स्पष्ट प्रकट हो गया।" यह रिपोर्ट मिलसे ही अदालत ने मुद्दई का दावा खारिज कर दिया, और विश्वेश्वरनाथ तथा मुद्दई, दोनों को फ़ौजदारी-सिपुर्द कर दिया । - कहाँ तो बैरिस्टर साहब इस फेर में थे कि अस्सी हजार मिलते ही कोई बढ़िया कोठी खरीदेंगे और कहाँ अब प्राण बचाना कठिन हो गया। उलटी प्रांत गले पड़ी। सोचा, जेलखाने अलग जायेंगे और वैरिस्टरी का डिप्लोमा अलग छिन जायगा । कौड़ी के तीन-तीन हो जायँगे। परंतु वह स्वयं वैरिस्टर थे, इसलिये बड़े-बड़े वैरिस्टरों पर उनका प्रभाव था। सबने यह निश्चय कर लिया कि विश्वेश्वरनाथ को बचाना ही चाहिए। विश्वेश्वरनाथ और दीवानजी, दोनों पर मुकदमा चला । अंत को विश्वेश्वरनाथ तो बच गए ; परंतु दीवानजी को सज़ा हो गई। स्याही के नए-पुराने होने की बात को बैरिस्टरों ने बिलकुल उहा ही दिया । रही केवल जाली दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने की बात ; सो उसके लिये वैरिस्टरों ने यह कहा कि दीवानजी और वैरिस्टर साहब में मित्रता थी, इसलिये वैरिस्टर साहब ने हस्ताक्षर कर दिए थे, यह सोचकर कि रजिस्ट्री होते समय इस बात की जाँच कर लेंगे कि -
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