१४० चित्रशाला । - मोटर श्राकर रुकी । उसमें से एक सजन बिलकुल अंगरेजी लिबास में उतरे, और सीधे चैरिस्टर साहब के पास चले पाए । चैरिस्टर उन्हें देखते ही उठ खड़े हुए, हाथ मिलाया, और पास की कुर्सी पर बैठने के लिये कहा । वह सज्जन बैठागए । वैरिस्टर साहब ने पूछा- श्रापका नाम? वह सजन बोले-मेरा नाम श्रजीतसिंह है, और मैं...रियासत का दीवान हूँ। मैं एक मुकदमे के मुतालिक श्रापके पास आया हूँ। 'रियासत के दीवान ! और उनका मुकदमा !!' सुनते वैरिस्टर साहब की वारें खिल गई। मन की प्रसन्नता को भीतर-ही-भीतर दयाने की कोशिश करते हुए बोले-बढ़ी ख़ुशी की बात है । मैं थापकी सेवा के लिये हाज़िर हूँ। वह सजन-एक लाख का दस्तावेज़ है । उसकी नालिश करना है। वैरिस्टर साहब-बह दस्तावेज़ श्राप लाए हैं ? वह सजन-जो हाँ, मगर उसमें एक नुन्स है । उसके संबंध में आपसे सलाह लेनी है। यह कहकर उन्होंने जेब से वह दस्तावेज़ निकालकर बैरिस्टर साहब के हाथ में दे दिया। वैरिस्टर साहब ने दस्तावेज़ को ध्यान- र्वक देखा; वाद को बोले. इसको लिखे गए तीन साल हो गए ! वह सज्जन वैरिस्टर- हाँ, इसमें नुक्स क्या है ? वह सज्जन-यह रजिस्ट्री-शुदा नहीं है। वैरिस्टर साहब ने उसे उलटकर देखा और देखकर बोले- यह तो बड़ा भारी नुक्स है । इतनी भारी रकम का दस्तावेज़ और उसकी रजिस्ट्री नहीं कराई गई ! .
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