पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१४६

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पथ-निर्देश . ano जिससे शरीर का खून -सूखे, दो कौड़ी की है। ऐसी महत्त्वाकांक्षा तो ईश्वर की मार है, अभिशाप ही है ! विश्वेश्वर-तुम तो उन आदमियों में हो, जो रोटी-कपड़ा मिलने ही को सुख समझते हैं। घनश्याम- -न समझे, तो करें क्या, प्राण दे दें? जब -हमें मालूम है कि हम इस जन्म में, लाज चेष्टा करने पर भी, संपत्ति- शाली नहीं हो सकते, तो व्यर्थ चिंता और कष्ट उठाने से लाभ ? विश्वेश्वर- उद्योग और प्रयत्न करने से सब कुछ हो सकता है। चेष्टा करने से ईश्वर तक प्राप्त हो सकता घनश्याम-क्षमा कीजिए, उसका नाम उद्योग और प्रयत्न नहीं है उसका नाम तपस्या है। तपस्या और प्रयत्न तथा उद्योग में श्राकाश-पाताल का अंतर है। तपस्या बात ही दूसरी है। तपस्या में तो मनुष्य को घोर कष्ट भी सहन करने पड़ते हैं । मोटरों में चढ़े घूमने से, सुस्वादु भोजन पाने से, बढ़िया सिगरेट पीने से, रोज शाम को शराब उड़ाने से तपस्या नहीं होती। तपस्या में मनुष्य को संसार का, अपने बंधु-बांधवों का, अपने शरीर तक का मोह त्याग ' देना पड़ता है। विश्वेश्वरनाथ इसका कुछ उत्तर न देकर बोले-अच्छा अब श्राज्ञा दो, चलूँगा। यह कहकर वह बिदा हुए। , वैरिस्टर विश्वेश्वरनाथ की धन-लोलुपता प्रतिदिन बढ़ती ही गई । उनकी महत्त्वाकाँक्षाएँ बहुत बढ़ी-चढ़ी थीं और उनको प्रत्यक्ष देखने के लिये वह सब कुछ करने पर उद्यत रहते थे। शाम का वक्त यो । विश्वेश्वरनाथ अपनी कोठी के बरामदे में, पारामकुर्सी पर लेटे हुए अखवार पढ़ रहे थे, उसी समय उनकी कोठी के फाटक पर एक