पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१४५

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पथ-निर्देश १३७

. घनश्यामदास का मकान साधारण था, गुज़र के लिये काफी था। बाहर एफ छोटी-सी बैठक में सफेद फ़र्श विछा हुधा था, जिस पर 'एक गाव-तकिया भी रक्खा था। विश्वेश्वरनाथ गाव-तकिए के सहारे बैठ गए; फिर वह मकान की ओर देखकर मन में सोचने लगे-ये लोग इतने छोटे मकानों में कैसे रहते हैं ; हमसे तो यहाँ एक दिन भी न रहा जाय ! घनश्यामदास ने पूछा-श्राप मकान को बड़े गौर से देख रहे हैं? विश्वेश्वर-मकान है तो साफ-सुथरा; लेकिन कुछ छोटा है । जिस मकान में तुम पहले रहते थे, उससे तो अच्छा ही है। घनश्याम-जैसा कुछ भी है, हमारे लिये काफी है। यह कहकर धनश्यामदास अंदर चले गए, और थोड़ी देर के बाद लौटकर बोले-चलिए, खाना खा लीजिए । विश्वेश्वरनाथ ने अंदर जाकर भोजन किया। तत्पश्चात् पुनः बाहर कमरे में आ गए। घनश्याम ने पान-इलायची तथा सिगरेट सामने रख दिया। विश्वेश्वरनाथ ने पान तो खाए नहीं, केवल इलायची ले ली, और सिगरेट पीने लगे। विश्वेश्वरनाथ ने पूछा-कहो, अाजकल कैसी कटती है ? . धनश्याम-बड़े श्रानंद में । डेढ़ सौ महीना मिलता है। श्रानंद से खाते-पीते हैं। न ऊधौ का लेना, न माधो का.देना । विश्वेश्वर-पता नहीं, तुम इतने ही में कैसे संतुष्ट रहते हो। 'यहाँ तो दो हजार माहवार पैदा करते हैं, फिर भी फ्रिक्रों के मारे रात को नींद नहीं श्राती। धनश्यामदास हँसकर बोले-आपके हृदय में महत्वाकांक्षाएँ भरी पड़ी है, और यहाँ उनसे कोसों भागते हैं। विश्वेश्वर--हिंदोस्तानियों में यही तो दोप है कि ये लोग बहुत