पथ-निर्देश १३५ . . - - किसी की बढ़िया कोठी पर दृष्टि पड़ती, कलेजे पर साँप नोट जाता कि हाय, यह कोठी हमारे पास क्यों न हुई ! रूपए हों, तो हम भी ऐसी ही : कोठी बनवावें । जहाँ तक मानसिक चिंता, मानसिक क्लेश और धन- लोलुपता का संबंध है, वहाँ तक वैरिस्टर साहब और एक ऐसे दरिद्र में, जिसे केवल भोजन और वस्त्र की सदाचितारहती है, कोई अंतर न था। एक दरिद्र आदमी दिन-भर इसी चिंता में अपना खून सुखाया करता है कि शाम सक उसको और उसके बाल-बच्चों को पेट भर भोजन मिल जाय, तन ढकने को वस्त्र मिल जाय । रात में भी उस बेचारे को इसी चिंता के मारे नींद नहीं आती । वैरिस्टर लाहब भी दिनभर उसी चिंता में रक्त सुखाया करते कि किसी प्रकार खूब रुपए मिलें, कोठी खरीदे, बाग़ लें, बढ़िया-बढ़िया गाड़ियाँ रक्खें, खूब ठाट-बाट बनार्वे । रात में भी बेचारे को इसी चिंता के मारे नींद हराम हो गई थी। दो हजार माहवार समानेवाले वैरिस्टर साहब में और एक दरिद्र में कोई अंतर नहीं ? जितनी चिंता उसे रहती है, उससे कम इन्हें नहीं । जितना मानसिक क्लेश उसे रहता है; उसना ही इन्हें भी। खाते-पीते लोगों के सामने वह दरिद्र जितनी अपनी लघुता अनुभव करता है, उतनी ही बैरिस्टर साहब उन लोगों के सामने महसूस करते हैं, जिनके पास उनसे अधिक धन है, उनसे अधिक बढ़िया बाग़, कोठी तथा अन्य सामान हैं। जो वस्तु मनुष्य को प्राप्त हो जाती है, उसका मूल्य, रसका महत्व, उसकी दृष्टि में, कुछ नहीं रहता; फिर वह चाहे जितनी मूल्यवान् क्यों न हो.चाहे जितनी दुष्प्राप्य । मनुष्य सदैव उसी वस्तु की अभिलाषा में ठंडी साँसे भरता है जो उसे प्राप्त नहीं, जो उसे नसीय नहीं, वह चाहे जितनी साधारण हो, चाहे जितनी मामूली हो । एक लखपती मनुष्य के लिये हजार-दो हजार रुपए कोई चीज़ नहीं । क्यों ? इसलिये कि रुपए उसके पास हैं, उसे प्राप्त हैं । परंतु जिसके पास सौ रुपए भी इन -
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