पथ-निर्देश १३१ 1 '1 .. घनश्याम-जिस प्रासानी से प्राता है, उसी प्रासानी से जाता भी है ! "जैसी करनी, वैसी भरनी" बस, यही बात है। विश्वेश्वर-यह बात नहीं। मैं कोई फ्रिजूलानी तो करता नहीं। जितने खर्च मैंने आपको बताए हैं, उनमें भला फिजूल कौन-सा है ? धनश्याम-नामदनी है, इसलिये फ़िजूल नहीं मालूम होते । आमदनी न हो, तब फिजूल खर्च का पता चले । मुझे तो सिग. रेट और शराब का खर्च बिलकुल फ्रिजूल दिखलाई पड़ता है। आपके लिये वह घावश्यक है, और वह भी इसलिये कि आपको प्रामदनी है । ईश्वर न करे, कहीं, श्रामदनी कम हो जाय, तो श्राप को भी ये खर्च फिजूल ही दिखलाई पड़ें। खैर, अब यह बत- लाभो कि कुछ बचाते भी हो, या सब चट ही कर जाते हो? विश्वेश्वर-इधर डेढ़ साल से श्रामदनी बढ़ी है, नहीं इसके 'पहले तो हज़ार-पाठ सौ रुपए माहवार से अधिक नहीं मिलता था। इस डेढ़ साल में कठिनाई से दस-बारह हजार रुपए बचाए हैं । यह कहकर ,विश्वेश्वर उठ खड़े हुए, और बोले-चलो, अंदर बैठे। .. . 1 वैरिस्टर साहव अर्थात् विश्वेश्वरनाथ करते तो थे. डेढ़-दो हजार रुपए, माहवार पैदा ; पर तब भी उनकी धन-लिप्सा कम न हुई थी, वरन् प्रतिदिन बढ़ती ही जाती थी । यद्यपि उन्हें एक प्रकार से सब तरह का सुख था। नौकर-चाकर, सवारी, बँगला इत्यादि कोई वस्तुःऐसी न थी, जो उन्हें प्राप्त न हो; परंतु फिर भी वह सुखी न थे। सदैव यही चिंता रहती थी कि किसी प्रकार उनकी आमदनी बढ़े। घर में केवल चार जीव थे-एक वह स्वयं, दूसरी उनकी पत्नी; सीसरा उनका पुत्र, जिसकी उमर दो वर्ष के लगभग थी, भोर चौथे उनके वृद्ध पिता। केवल चार प्राणियों के लिये भी; बैरिस्टर साहब ५-
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