पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१३६

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, चित्रशाला घनश्याम-नहीं, मैंने यह तो नहीं कहा था कि सब छ जान -सऋठा है। हाँ, यह अवश्य कहा था कि कल्पना से कमी-कमी वे वाते भी जाना जा सकती हैं, जिनका मनुष्य को कमी अनुभव नहीं होना । यह बात तो कभी संभव नहीं कि कल्पना से मनुष्य प्रत्येक बात को जान ले । विश्वेश्वर-नर, गनीमत है। आपने यह तो माना कि प्रत्येक वाठ कल्पना से नहीं जानी जा सकती। घनश्याम यार, यह तुम्हारी हठधर्मी है। मैंने यह कमी नहीं कहा था। विश्वश्वर--(हसकर ) नेर, उस बात को जाने दो । हाँ, तो लंदन में धनी लोग ऐसे-ऐसे सिगार पीते हैं, जिनका मूल्य प्रति सिगार एक रुपया होता है । अव दिन-भर में ११.२० सिगार फुक नाना सो साधारण-सी बात है। घनश्याम-दिन-भर में एक आदमी कितने सिगार पी सकता है ? विश्वेश्वर-वैसे पुरा सिगार पिए, तो एक श्रादमी दिन-भर में छः सात से ज्यादा नहीं पी सकता। परंतु धनी श्रादमी ऐसा नहीं करते। उन्होंने तो सिगार मुलगाया, दस-पाँच मिनट पिया, और फेक दिया। इस प्रकार प्राधे से अधिक सिगार विनकुज बेकार नाता है। यह समझ लीजिए कि एक रुरए का सिगार है, तो चार-छः पाने का तो पी लिया, और बाकी दस-बारह श्राने का फेक दिया । जो मितव्ययों होते हैं, वे टस सिगार को बुझाकर रख लेते हैं, फेकलं नहीं। इस तरह वह दूसरी-ठीसरी वार भी काम दे नाता है। परंतु उदार धनी लोग ऐसा नहीं करते । सिगार बुझाकर रखना टुच्चापन समझते है । ऐसे ही दिन-भर में दस-बारह सिगार तो वे स्वयं ख़राब कर ढानते हैं, और दस-बारह मित्रों के नातिर-तवाजे में जाते हैं। अगर आठ पाने का भी एक सिगार