५१६ चित्रशाला रहती और मेरा नाम चलता; पर विधाता की इच्छा नहीं है। कितने आश्चर्य की बात है कि मेरा सगा पुत्र मेरे ही रक्त-वीर्य से बना हुआ है। पर उसमें वह बात नहीं उत्पन्न होती, वो मुझमें है। ऐसी ही बातें सोचकर प्रवीणजी का हृदय बड़ा दुःन्त्री हुश्रा; परंतु फिर भी उन्होंने चेष्टा नहीं छोड़ी। शाम का समय था । महाराज अपने चादरी राजकत्र में बैठे ये । पास ही मंत्री तथा राजसमा के कुछ अन्य मम्य बैं थे। प्रवीणजी एक कविता मुना रहे थे। कविता समाप्त होने के कुछ समय टपरांत महाराज ने कहा-"प्रवीणजी, श्रापकी यह कविता तो साधा- रय रही। इसमें कोई विशेष बात नहीं है।" सभासदों ने भी महा- राज की बात का समर्थन किया । तब प्रवीणजी कुछ अप्रतिम होकर बोले-"महाराज, यह कविता जिस समय मैंने लिखी थी, टस समय ली कुछ खराब था । इसलिये अच्छी नहीं बनी।" महाराज ने कहा-ऋवि लोग तो जी नराब होने के समय कविता लिखते ही नहीं। याप मा अभी तक ऐसा ही करते रहे हैं। प्रवीणजी-हाँ श्रीमन् । यह तो श्रीमान् का कथन चित हो है। र, मैं कन्ज्ञ ही एक सुंदर कविता बनाकर श्रामान की सेवा में उपस्थित कहूँगा। एक सभासद बोज्ञ टठा-प्रबोगजी, जिन दिनों मोहनलाल का श्रापका साथ या, टन दिनों अापने जो कविताएँ लिखीं, वे अपूर्व थीं। वैसी कविताएं श्रापने उसमें पहले भी कभी नहीं विखी थीं; और अब तो, बुरा न मानिएगा, थापकी कविताएँ अत्यंत साधा. रण होती है। प्रबोयजी ने टक्त सभासद की और ती दृष्टि डाली, और चीन-मेरी कविताओं में और मोहनवाल में क्या संबंध ? 1
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१२४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।