चित्रशाला महल से महारान इंसते हुए बोले-प्रवीयर्जा, घमी तो श्राप कह रहे थे कि इस समय भी श्राप जो कुछ लिख-पढ़ सकते हैं, उसकी टन का लिखनेवाला घास-पास में कोई है ही नहीं ? प्रवीण-हाँ श्रीमन्, यह तो मैं अब भी कहता हूँ। जहाँ तक कविता का संबंध है, यहाँ तक मेरी घुद्धि बड़ी प्रखर है। पर साधारण बातचीत में नम हो जाता है। महाराज उसी प्रभार हसते हँसते योले-घरे, कोई मोहनलाल को तो बुलायो ।-प्रवीणजी, आपने ऐसी सुंदर कविता मिली है कि मैं चाहता हूँ, मोहनन्नाल भी उसे इसी समय सुने ! पक दास तुरंस मोहनलाल को बुलाने के लिये गया। मोहनलाल इस स्थान में परदेशी या, और अकेला नी । अतएव मिने मचानों में से एक मकान रहने के लिये दे दिया गया था ! इधर मोहनलाल के बुलाने की बात सुनकर प्रवीण मन-ही-मन. बड़े कुड़े। पर करते क्या ? बेचारे चुपचाप जुड़े रहे। परंतु थोड़ी देर में मन-ही-मन यह सोचकर कि अच्छा है, उन्हों' अपने जी को बाढ़प दिया। योड़ी देर में मोहनलाल पा गया। मोहनलाल को देखते ही महाराज ने कहा-अरे भाई मोहन, देखो, हमारे प्रदीपनी ने . कैसी सुंदर कविता विन्त्री हैं ।-हाँ प्रायनी, जरा फिर से पदिए। प्रवीणजी ने दूने प्रावेश के साथ कविता पढ़नी शुरू की। कविता- समात होने पर महाराज ने मोहन से पूछा-हो कैसी कविताई? मोहनलाल ने कहा क्या बात है! प्रवीनजी की कर का दिन्नेवाला इधर तो कोई है ही नहीं। यदि छोटा मुँह बड़ी बाट- न समझी जाय, दो मैं यह कहूँगा कि प्रवीयजी श्रीमान् की समान के भूपण हैं। 1
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/११८
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