सच्चा कवि १०७ पत्नी-लो, कहाँ १८ वर्ष और कहाँ २५ वर्प ! सात वर्ष का अंतर है। सात वर्ष कुछ होते ही नहीं ? सात वर्ष में तो युग पलट जाता है। प्रवीण-युग नहों पत्थर पलट जाता है ! अभी से न करेगा, तो सात वर्ष नहीं, चाहे चौदह वर्ष भी हो जाय, जैसे-का-तैसा ही रहेगा। - पत्नी-अच्छा तो अब इन बातों को छोड़ो। चलो, भोजन करो चलके । जो कुछ होगा, देखा जायगा। कोई हमारी तकदीर तो छीन ही न ले जायगा। प्रवीणजी ने पत्नी के बहुत कुछ समझाने-बुझाने तथा आग्रह करने पर भोजन किया। इसके पश्चात् वह उसी समय कविता लिखने बैठ गए। उन्होंने निश्चय कर लिया, चाहे जिस तरह हो, इस युवक कवि की जड़ उखाड़नी ही पड़ेगी ; क्योंकि यदि इसी तरह वह महाराज के हृदच पर अधिकार जमाता गया, तो एक दिन वह अवेगा, जब उनको महाराज की नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। (३) रात के श्रा० बज चुके हैं । महाराज अपने अंतःपुर के एक सुसज्जित कमरे में, मखमली कोच पर, लेटे हैं। सामने बहुमूल्य कालीनों पर कुछ सुंदर स्त्रियाँ बैठी गा-यजा रही हैं। परंतु महाराज का ध्यान गाने की ओर बिलकुल नहीं है। वह किसी दूसरी ही चिंता में डुवे हुए हैं । उसी समय एक दास ने प्राकर कहा-"महाराज, राजकवि प्रवीणजी श्रीमान के पास पाना चाहते हैं।" महाराज कुछ चौंककर बोले-क्या कहा--प्रवीणजी आना चाहते हैं ?, दास-हाँ श्रीमन् । महाराज कुछ देर तक सोचते रहे । फिर बोले-अच्छा, श्राने
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