सच्चा कवि १०५. को प्रणाम किया और धीरे-धीरे श्राफर अपने स्थान पर बैठ. गया। - राजकवि पं० चंढीप्रसाद "प्रवीण" काव्य-चूड़ामणि अपने घर में बैठे थे। भोजन का समय हो गया था; परंतु प्रवीणजी किसी चिंता में मग्न थे । उन्हें भोजन करने की सुधि ही न थी । उसी समय उनके अष्टादस-वर्षीय पुत्र ने श्राकर कहा-पिताजी, चलिए, भोजन - कीजिए। प्रवीगजी ने कहा-याज मैं भोजन नहीं करूंगा। पुत्र ने पूछा-क्यों? प्रवीणजी ने उत्तर दिया--मुझे क्षुधा नहीं है पुत्र-कुछ जी खराब है क्या ? प्रवीण-नहीं, कुछ भूख ही नहीं है। पुत्र चला गया। उसके चले जाने के बाद कुछ देर में प्रवीणजी की पत्नी आई। उन्होंने पूछा-क्यों, प्राज भोजन क्यों नहीं करते,. कुछ जी खराब है क्या ? प्रवीणजी ने एक दीर्घ नि:श्वास लेकर कहा-क्या बताऊँ ! पत्री-क्यों, बतायोगे क्यों नहीं ? प्रवीण-श्राज एक छोकरे के सामने महाराज ने मेरा अपमान किया? पत्नी-कैसे? प्रवीण-"एक युवक कवि न-जाने कहाँ से या मरा । महाराज को उसने अपनी कविता सुनाई । कविता अच्छी थी; पर उस कविता पर जितना उसे पुरस्कार दिया गया, वह अनुचित था। पत्नी -तो उसका भाग्य ! इसमें तुम्हारा अपमान क्या हुआ? प्रवीण---तुम इन बातों को क्या समझ सकती हो ? मेरा बड़ा n
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