१०४ चित्रशाला 1 सके। का सुख सभा के सब लोग मंत्र मुग्ध की तरह झवि की कविता सुनने में मग्नः . हो गए । राजधि भी इस अल्पवयस्क कवि के मुग्न पर अपनी स्थिर दृष्टि जमाए हुए कविता सुनने में वल्लीन थे। कविता समाप्त हुई । कवि को अपनी परिस्थिति का ज्ञान हुआ। वह पुनः शिष्ट तया गंभीर हो गया। इधर सुननेवालों की भी नोंद- सी उचटी । सबने “वाह-बाइ" की बौछार र दी। महाराज ने भी कहा "ब ! बड़ी सुंदर रचना है।" पर ये सब प्रशंसात्मक शब्द युवक कवि के मुख पर हिचिन्मान प्रसन्नता तया गर्व श्रा माव न ला फदि टसी प्रकार गंभीर तया भावना-शून्य रहा वह अपनी दृपि राजमवि पर जमाए चुपचाप काग़ज़ को लपेट रहा था। राजकवि चुपचाप सिर सुनाए बैठे थे। उनके मुख से कविता अथवा कवि के प्रति एक भी प्रशंसात्मक शब्द न निकला था। सहसा महा. राज ने राजकवि की ओर देखकर ला-आहिए कविजी, इस युवक की कविता कैसी रही?" राजकवि ने सिर ऊपर उठाया, दम-भर कुछ सोचकर उत्तर दिया-"कविता वुरी नहीं है" महाराज के मुख पर एक हलकी सी मुसकिराहट मनक गई। अन्य उपस्थित लोग भी राजकवि के इस टत्तर पर मुसफिरा दिए । सब परस्पर मानाफूसी करने लगे। कोई कहता था-"राजकवि तो नी में जल मरे होंगे।" कोई कहता था-' - कविजी सामने मला दूसरे की प्रशंसा कैसे करें ।" इसी प्रकार सब लोग राजकवि के प्रशंसा न करने का कारण केवल ईपी समझ रहे थे। परंतु इधर मोहननाय ने ज्यों ही रानकवि के ये वाक्य सुने कि कविता बुरी नहीं है, क्यों ही उसके मुखपर प्रसन्नता की लालिमा दौड़ गई। टसने एक ही निःश्वास इस प्रकार छोड़ी, जिस प्रकार कोई व्यक्ति पोर परिश्रम करने के पश्चात् उस परिश्रम का उचित प्रतिफल पाने पर पूर्व संतुष्ट होकर दो नि:श्वास छोड़ता है। रवि ने महाराज और महाराज अपने 1
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