उनके पिता को भी उनकी इस महत्वाकांक्षा का पता लग गया था। अतएव वह भी इसी चेष्टा में रहे कि कोई सुशिषित पुत्र-वधु मिले। ईश्वर ने उनकी यह अभिलाषा पूरी की। एक वकील साहब की कन्या मिल गई, जो प्रत्येक रष्टि से सुख देवप्रसाद के चित्तानुकूज यी, विवाह-संबंध हो गया। यद्यपि वकील साहय ने विवाद में दहेज यहुत ही साधारण दिया, अन्य किसी प्रकार की धूमधाम भी नहीं की; परंतु तब भी सुखदेवप्रसाद और उनके पिता ने केवल कन्या-रत पाकर ही अपने को धन्य माना। विवाह हो जाने के पश्चात् जब सुखदेवप्रसाद की पत्री प्रियंवदा देवी ससुराल पाई और सुखदेवप्रसाद ले उनका प्रथम साक्षात् हुश्रा, तो सुखदेवप्रसाद ने पत्नी का नख-शिख तथा उनकी योग्यता देखकर अपने भाग्य को सराहा । परंतु ज्यों-ज्यों दिन व्यतीत होने लगे और प्रियंवदा देवी की नव वधूचित लज्जा एवं संकोच में कमी होने लगी, त्यों-स्यों सुखदेवप्रसाद को पदी की ओर से निराशा-सी होने लगी। उन्हें पता लगा कि जिसको वह अमृत समझे थे, वह विप निकला। इसका परिणाम यह हुआ कि सुखदेवप्रसाद पत्नी की ओर से क्रमशः उदासीन होने लगे। शाम के आठ बज चुके थे, सुखदेवप्रसाद घूमकर घर लौटे और सीधे अपने निजी कमरे में पहुँचे । कमरे के भीतर पैर रखते ही उन्होंने देखा कि प्रियंवदा देवी पलंग पर पड़ी एक उपन्यास पढ़ने में मग्न हैं । पति के पैरों की आहट पाकर उन्होंने एक बेर पुस्तक पर से दृष्टि हटाकर पति की ओर देखा, तत्पश्चात् पुनः पुस्तक पर रष्टि जमा हो । पती का यह व्यवहार देखकर मुखदेवप्रसाद के माये पर बल पड़ गया। उन्होंने चुपचाप कपड़े उतारे और एक पोर मेज़ के पास पड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गए । शाम की डाक से कुछ पत्र पाए थे, वे मेज़ पर रक्खे हुए थे, उन्हें पढ़ने लगे। इस कार्य में
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चित्रशाला