पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१०७

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साध की होली भौजी हाँ यही बात है। नहीं तो मैं तुमसे क्यों कहती। श्राज मेरा बाप-भाई यहाँ होता, तो भी क्या मैं इतना अपमान सहत्ती ? इतना कह कर भौजी ने मुँह पर आँचल रखकर रोना प्रारंभ किया। रामसिंह कुछ क्षण तक खड़ा सोचता रहा, तत्पश्चात् बोला- वाप-भाई नहीं हैं तो न सही, भौजी तुम्हारा देवर है। भौजी, निश्चित होकर बैठो। कल सवेरे रंग लाकर तुम्हारे साथ होली खेलूँगा। यह कहकर रामसिंह शीघ्रता-पूर्वक वहाँ से चला गया। प्रातः काल होते ही युवती ने नित्य-कर्म से निवृत्त होकर एक सफेद धोती पहन ली और देवर के थाने की प्रतीक्षा करने लगी । उसका हृदय आशा तथा निराशा में झूल रहा था । उसको पूर्ण रूप से यह विश्वास नहीं हुआ कि उसका देवर अपना वचन पूरा करेगा। गाँव में चारों ओर "होली है, होली है" की चीत्कार मची हुई थी। शंकरबलश रंग में तर-बतर हसता हुधा पत्नी के पास आया और बोला-क्यों कैसे बैठी हो? होनी नहीं खेलोगी? श्राश्रो खेलो। पत्नी ने एक तीव्र दृष्टि डालकर कहा-मैं पहले अपने देवर के साथ होली खेलूंगी, तब एक दूसरे के साथ खेलूँगी। शंभरवश-अच्छा यह बात है ? पर रामसिंह तो श्राज मुँह अँधेरे ही से गायब है, न-जाने कहाँ चला गया है। युवती का हृदय धड़कने लगा । उसने पति की बात का कोई उत्तर नहीं दिया । हठात् दहलीज से रामसिंह का कंठ-स्वर सुनाई पढ़ा-"भौजी, तैयार हो जाओ, रंग ले पाया ।" इतना कहता हुश्रा रामसिंह लोटा हाथ में लिए आकर भौजी के सामने खड़ा हो गया। उसके कपड़ों पर रक्त वर्ण की छोट पड़ी हुई थीं। भौजी का मुख खिल उठा । पर खड़ी हो गई । रामसिंह ने लोटे में से एक चुल्लू लेकर भौजी के कपड़े पर छौंटा मारा। उस छींटे के पड़ते ही