साध की होली १५ है कि अभी जो वह यह सुन पावें, तो यही श्राफर और उसके घर में घुसकर हट्ठी-पसली तोड़ दें। शंकरवस्श-ये सब कहने की बातें हैं, पराए पूत से काम पड़ता है, तो सब सिट्टी-बिट्टी भूल जाती है, फिर वह तो जमींदार हैं। खैर, जो हुआ सो हुश्रा, अब तुम चिंता मत करो। तुम्हारे साथ कल से मुहल्ले की स्त्रियाँ जाया करेंगी। पोदशी चुप हो गई। उसके अोठों पर घृणा-युक्त मुसफिराहट एक क्षण के लिये श्राकर पुनः विलीन हो गई। (३) उस दिन से शंकरबहश की पली कई स्त्रियों के साथ जाने लगी। इस कारण फिर शेख साहब को कुछ कहने का साहस न हुआ। होली निकट या गई थी, केवल तीन दिन रह गए थे। एक दिन चौधराइन शंकर वरदश के घर पाई । एकांत पाकर उसने शकर- बहश की पली से कहा-मालिक ने पूछा है कि क्या ठकुराइन हमसे नाराज हो गई है? पोरशी ने भृकुटी चढ़ाकर पूछा-कौन मालिक ? चौधराइन-वही हमारे गाँव के जमींदार शेखजी। बड़े भले श्रादमी हैं । जिस पर खुश हो जाते हैं, निहाल कर देते हैं । तुम बढ़ी भागवान् हो, जो तुम पर उनकी नज़र पड़ी है। पोदशी ने कहा-तू बक क्या रही है ? चौधराइन युवती की वक्र दृष्टि से कुछ भयभीत होकर बोली- उन्होंने जो कहा है, सो हम तुमसे कहती हैं । हमारा इसमें क्या . युवती ने पूछा-उन्होंने क्या कहा है ? चौधराइन-कहा है कि सीधी तरह मान जायँगी, तो निहाल कर देंगे, नहीं तो बड़ी दुर्दशा फराएंगे, रात में जबरदस्ती उठवा
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