साध की होली अभी तीन ही चार रोज़ हुए, आया है। छोटा भाई रामसिंह अभी अविवाहित है। घर की एक कोठरी में अंडी के तेल का दीपक टिमटिमा रहा है। शंकरबरश की पत्नी चुपचाप उदास भाव से बैठी है। हठात् किसी के आने की आहट पाकर उसने घूघट खींच लिया और कुछ सिमट- कर बैठ गई । उसी समय शंकरयशसिंह कोठरी के भीतर पहुँचा। कोठरी का एक किंवाड़ बंद करके वह पत्नी के सामने बैठ गया। उसने बड़े प्यार से उसका घुघट उलट दिया और उसकी ठोड़ी में हाथ लगाकर उपका नस-मस्तक कुछ ऊपर को उठाया और हवात् कुछ देखकर वह चौंक पड़ा। उसके प्रोठों पर नृत्य करता हुश्रा मृदु-हास्य एकक्षण में विलीन हो गया। मुख-मंडल पर विराजमान प्रसन्नता की कालिमा लुप्त हो गई। उसने पूछा-हैं ! तुम रो क्यों रही हो? पत्नी ने कुछ उत्तर न दिया, मौन बैठी रही। शंकरबरश ने पुनः प्रश्न किया-बोलो, रोगी क्यों हो? क्या बात है, अम्माँ ने कुछ कहा है क्या ? पत्नी ने केवल सिर हिलाकर बताया कि अम्माँ ने कुछ नहीं कहा । शंकरवरुश-तो फिर रोने का कारण ? पली मौन धारण किए बैठी रही। शंकरवश-वतानो, नहीं तो मैं उठकर चला जाऊँगा। . पती ने इस बार मौन-व्रत भंग किया। वह बोली-तुम्हारे जमींदार राह में मिले थे। शंकरबख़्श का मुँह पीला पड़ गया । घबराकर बोल उठा-हाँ- हाँ, तो फिर? पत्नी-उन्होंने ऐसी-ऐसी बातें कहीं कि क्या कहूँ--यही मनाती थी कि धरती फट जाय और मैं समा जाऊँ। शंकरबद्भश चुपचाप ओंठ चबाने लगा। कुछ देर तक मौन रहने के
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