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चिन्तामणि

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६४ चिन्तामणि ' Until man's race be wielded by its joy Into some high incomparable day, Where perfectly delight may know itselfNo longer nced a strife to know itscif Only by pievailing over pain. “हम सौन्दर्य की वायु में पड़े बराबर आगे और ऊँचे बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार मनुष्यजाति अन्त में वह अनुपम दिन देखेगी जव आनन्द अपनी अनुभूति आप अकेले कर लेगा-इस अनुभूति के लिए उसे किसी प्रकार के द्वन्द्व की अपेक्षा न होगी । आनन्द स्वयंप्रकाश होगा, केवल क्लेश के परिहार के रूप में न होगा । पर यह कहना कि अत्र ‘भूत के प्रेम के स्थान पर 'भविष्य के प्रेम' ने घर किया है, एक प्रकार की रूढ़ि (Convention ) या बनावट ही है । हृदय की दीर्घ वंशपरम्परागत वासना का उल्लेख हम पहले कर चुके है । इस वासना के संघटन में इतिहास, कथा, आख्यान आदि का भी बहुत कुछ योग रहता है । एक भावुक योरोपियन के लिए एथेंस, रोम आदि नामो में तथा एक भावुक भारतीय के लिए अयोध्या, मथुरा, दिल्ली, कन्नौज, चित्तौर, पानीपत इत्यादि नामो में कितना मधुर प्रभाव भरा है ! अतीत का यह राग कहाँ तक उपयोगी है, इसका विचार करने में नहीं बैठे है। उपयोगिता अनुपयोगिता का विचार छोड़, शुद्ध कला की दृष्टि से हम मनुष्य की रागात्मिको प्रकृति के स्वरूप को विचार कर रहे है। मनुष्य का हृदय वास्तव में जैसा है वैसा मानकर हम चल रहे हैं। हमारे कहने का अभिप्राय केवल यही है कि अतीत का राग' एक बहुत ही प्रबल भाव है। उसकी सत्ता का अस्वीकार किसी दशा में हम नहीं कर सकते । मनुष्य, शरीर-यात्रा के संकीर्ण मार्ग मे मैले पड़े हुए अपने भावों को अतीत की पुनीत धारा में अवगाहन कराकर, न जाने कब