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चिन्तामणि

६० चिन्तामणि मुनि के हृदय का भी पूरा योग था। उनकी वृत्ति भी उसमें रमी हुई थी । इतने में देखते-ही-देखते क्रौञ्च के एक जोड़े का नर-पक्षी, रक्त ने लिपदा, गिरकर मुनि के सामने तडफने लगा । क्रोच्ची शोक से विल ताकती रह गई । सुग्व-शान्ति का भङ्ग हुा । मुनि एकबारगी करुणा ने व्याकुल, फिर रोप से उद्विग्न हो उठे। उनके मुंह से यह वाग्धारा छुटे पड़ी--- मा निषाद प्रतिष्ठान्नगन गावतीः शमाः । मनुनादेकमवः काम-मोहितम् ।। इम करुण क्रोध की वाणी मै लोकरक्षा अौर लोकरञ्जन की साधना-विधि र काव्य के अनेक-भावात्मक स्वरूप की घोषणा थी । मुनि ने तमसा-तट की उस घटना में सम्पूर्ण लोकव्यापार का नित्य म्वैम्प देग्या । इससे वे हताश नहीं हुए। ध्यान करने पर उसी के भीतर उन्हें मङ्गमग्री ज्योति को दर्शन हुआ जिसमें शक्ति, शीन और मन्दर्य तीन विभूतियों को दिव्य समन्वय था । इसी समन्वय को लेकर उनकी वेगवती वाग्धारा चली । यह समन्वय जटिल है-इस । प्रकार का है कि चाहे किसी एक को अलग करके ले उसके साथ दूसरी दो विभूतियाँ भी इधर-उधर लगी रहेगी । जैसे, यदि किसी ओर ध्वंस या नाश की योर प्रवृत्त शक्ति को लें तो और सब ओर ने वह शील-सावन और सौन्दर्य विकास करती दिखाई देगी । यदि क्षमा-अनुग्रह में प्रवृत्त शील को लें तो अपार शक्ति उस क्षमा और अनुग्रह के सौन्दर्य को बढाती दिखाई पड़ेगी। यदि सौन्दर्य को लें तो वह केवल व्याधि के रूप का प्रेम उभारता न दिखाई पड़ेगा, बल्कि शक्ति-शील के योग में भक्ति, आशा और उत्साह का सञ्चार करेगा । न तो अन्तःप्रकृति में एक ही प्रकार के भावो या वृत्तियों का विधान है और न बाह्य प्रकृति में एक ही प्रकार के रूप या व्यापारी का । भीतरी और बाहरी दोनो विधानो मे घोर जटिलता है । इन्हीं