पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/५४

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य सॉची का स्तूप देखने गया । यह स्तूप एक बहुत सुन्दर छोटी सी पहाड़ी के ऊपर है । नीचे छोटा-मोटा जङ्गल है , जिसमें महुए के पेड़ भी वहुत से हैं। संयोग से इन दिनों वहाँ पुरातत्त्व-विभाग का कैम्प पड़ा हुआ था। रात हो जाने से उस दिन हम लोग स्तूप नही देख सके , सबेरे देखने का विचार करके नीचे उतर रहे थे । वसन्त को समय था । महुए चारो ओर टपक रहे थे । मेरे मुंह से निकला-- महुओ की कैसी महक आ रही है । इस पर लखनवी महाशय ने चट मुझे रोककर कहा-“यहाँ महुए-सहुए को नाम न लीजिए, लोग देहाती समझेगे ।' मै चुप हो रहा , समझ गया कि महुए का नाम जानने से चावूपन में बड़ा भारी बट्टा लगता है । पीछे ध्यान आया कि यह वही लखनऊ है जहाँ कभी यह पूछनेवाले भी थे कि गेहूं का पेड़ आम के पेड़ से छोटा होता है या बड़ा । हिन्दूपन की अन्तिम भलक दिखानेवाले थानेस्वर, कन्नौज, दिल्ली, पानीपत आदि स्थान उनके गम्भीर भाव के आलम्बन हैं जिनमे ऐतिहासिक भावुकता है, जो देश के पुराने स्वरूप से परिचित है। उनके लिए इन स्थानों के नाम ही उद्दीपन-स्वरूप है। इन्हें सुनते ही उनके हृदय में कैसे-कैले भाव जाग्रत् होते हैं वे नहीं कह सकते । भार- तेन्दु का इतना ही कहना उनके लिए बहुत हैं कि- हाय पंचनद । हो पानीपत ! अजहुँ रहे तुम धरनि विराजत ? हाय चितौर ! निलज तू भारी , अजहुँ खरो भारतहि मैंझारी । पानीपत, चित्तौर, कन्नौज आदि का नाम सुनते ही भारत का प्राचीन हिन्दू-दृश्य ऑखों के सामने फिर जाता है। उनके साथ गम्भीर भावो का सम्बन्ध लगा हुआ है। ऐसे एक-एक नाम हमारे लिए काव्य के टुकड़े हैं। ये रसात्मक वाक्य नहीं, तो रसात्मक शब्द अवश्य हैं ।