पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/५१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४४
चिन्तामणि

चिन्तामणि बिजली से जगमगाते हुए नए अँगरेजी ढंग के शहरों में, धुओं उगता हुई मिलेर र हाइट वे लंडला की दुकान के सामने, हम कालिदास श्रादि से अपने का बहुत दूर पाते हैं । पर प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र में हमारा उनका भेद-भाव मिट जाता है, हम सामान्य परिस्थिति के साक्षात्कार द्वारा चिरकाल-व्यापी शुद्ध ‘मनुष्यत्व' का अनुभव करने है, किसी विशेप-काल-बद्ध मनुष्यत्व का नहीं । यहाँ पर कहा जा सकता है कि विशेप-काल-बद्ध मनुष्यत्व न नहीं, पर देश-द्ध मनुष्यत्व तो यह अवश्य है । हो, है । इसी देश- बद्ध मनुष्यत्व के अनुभव से सच्ची देश-भक्ति या देश-प्रेम की स्थापना होती है । जो हृदय संसार की जातियों के बीच अपनी जाति की म्वतन्त्र सत्ता का अनुभव नहीं कर सकता वह देश-प्रेम का दावा नहीं कर सकता। इस स्वतन्त्र सत्ता से अभिप्राय स्वरूप की स्वतन्त्र पत्ता से है; केवल अन्न-धन सञ्चित करने और अधिकार भोगने की स्वतन्त्रता से नही । अपने स्वरूप को भूलकर यदि भारतवासियो ने संसार में सुख-समृद्धि प्राप्त की तो क्या ? क्योकि उन्होने उदात्त बृत्तियों को उत्तेजित करनेवाली बॅधी-बंधाई परम्परा से अपना सम्बन्ध ताड़ लिया, नई उभरी हुई इतिहास-शून्य जङ्गली जातियों में अपना नाम लिखाया। फिलीपाइन द्वीपवासियों से उनकी मर्यादा कुछ अधिक नहीं रह गई है। देश-प्रेम है क्या ? प्रेम ही तो है । इस प्रेम का आलम्बन क्या है ? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु-पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत-सहित सारी भूमि । प्रेम किस प्रकार का है ? यह साहचर्यगत प्रेम है। जिनके चीच हम रहते है, जिन्हें वरावर ऑखो से देखते हैं, जिनकी बाते बरा- वर सुनते रहते हैं, जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है, सारांश यह है कि जिनके सान्निध्य का हमे अभ्यास पड़ जाता है, उनके प्रति लोभ या राग हो जाता है । देश-प्रेम यदि वास्तव में अन्तःकरण का