पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/५०

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य 'भाव' अङ्कित कर गए हैं। उनके सामने अपने को पाकर माना हम्, उन पूर्वपुरुषो के निकट जा पहुँचते है, और उसी प्रकार के भावों का अनुभव कर उनके हृदय से अपना हृदय मिलाते हुए उनके सगे बन जाते हैं । वर्तमान सभ्यता ने जहाँ अपना दखल नहीं जमाया है उन जङ्गलो, पहाडो, गॉवो और मैदान में हम अपने को वाल्मीकि, कालिदास या भवभूति के समय में खड़ा कल्पित कर सकते है , कोई बाधक दृश्य सामने नहीं आता । पर्वतो की दरी-कन्दराओ में, प्रभात के प्रफुल्ल पद्म-जाल से, छिटकी चॉदनी में, खिली कुमुदिनी में हमारी अखें कालिदास, भवभूति आदि की ऑखो से जा मिलती हैं। पलाश, इङ्गुदी, अङ्कोट वनों में अब भी खड़े हैं, सरोवरों में कमल अब भी खिलते हैं, तालावों में कुमुदिनी अब भी चाँदनी के साथ हँसती है, बानीर-शाखाएँ अव भी भुक-छुककर तीर का नीर चूमती है, पर हमारी ऑखे उनकी और भूलकर भी नहीं जाती, हमारे हृदय से मानो उनको कोई लगाव ही नहीं रह गया । अग्निमित्र, विक्रमादित्य आदि को अब हम नही देख सकने । उनकी आकृति वहन करनेवाला आलोक अब न जाने किस लोक में पहुँचा होगा , पर ऐसी वस्तुएँ अब भी हम देख सकते हैं जिन्हें उन्होने भी देखा होगा । सिप्री के किनारे दूर तक फैले हुए प्राचीन उज्जयिनी के ढुहो पर सूर्यास्त के समय खड़े हो जाइए, इधर-उधर उठी हुई पहाड़ियों कह रही हैं कि सहाकाल के दर्शन को जाते हुए कालिदासजी हमे देर तक देखा करते थे, उस समय ‘सिप्रा- वात’ उनके उत्तरीय को फहराता था । काली शिलाओं पर से बहती हुई वेत्रवती की स्वच्छ धारा के तट पर विदिशा के खंडहरों में से ईट- पत्थर अब भी पड़े हुए हैं जिन पर अङ्गराग-लिप्त शरीर और सुगन्ध- धूम से वसे केश-कलापवाली रमणियों के हाथ पड़े होगे ।। ॐ [ मेघदूत, पूर्वमेध, ३२ ] । [ वही, २६ ] ।