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चिन्तामणि

चिन्तामणि के लिए भृत-काल का क्षेत्र अत्यन्त पवित्र क्षेत्र है । वहाँ के शरीर- यात्रा के स्थूले स्वार्थ ने संश्लिष्ट होकर कलुपित नहीं होते--अपने विशुद्ध रूप में दिखाई पड़ते हैं । उक्त क्षेत्र में जिनके 'भाव' का व्यायाम के लिए सवारण होती रहता है उनके 'भाव' को वर्तमान विपयों के साथ उचित और उपयुक्त सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । उनके घृण, क्रोध आदि भाव भी बहुत कम अवसरों पर ऐसे होगे कि कोई उन्हें बुरा कह सके । मनुष्य अपने रति, क्रोध श्रादि भावों को या तो सर्वथा मार डाले, अथवी साधना के लिए उन्हें कभी-कभी ऐसे क्षेत्र में ले जाया करे जहाँ स्वार्थ की पहुंच न हो, तत्र जाकर सच्ची आत्माभिव्यक्ति होगी। नए अर्थवादी ‘पुराने गीतों को छोड़ने को लाख कहा करे, पर जो विशाल-हदय हैं वे भूत को बिना आत्मभूत किए नही रह सकते । अतीत-काल की वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति जो हमारा रागात्मक भाव होता है वह प्रात-काल की वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति हमारे भावो को तीव्र भी करता है और उनका ठीक-ठीक अवस्थान भी करता हैं । वप के आरम्भ में जब हम बाहर मैदान में निकल पड़ते हैं, जहाँ जुते हुए खेतो की सोधी महक आती हैं और किसानों की स्त्रियाँ टोकरी लिए इधर-उधर दिखाई देती हैं, उस समय कालिदास की लेखनी से अङ्कित इस दृश्य के प्रभाव से-- स्वव्यायत्त कृषिकलमिति भूविकारानभिज्ञ प्रतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनै पीयमान. । सद्य. सीरोन्कषणसुरभिक्षेत्रमारुह्य माल किंचित्पश्चाद्ब्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण ।।। हमारा भाव और भी तीव्र हो जाता है-हमें वह दृश्य और भी मनोहर लगने लगता है। जिन वस्तुओं और व्यापारो के प्रति हमारे प्राचीन पूर्वज अपने