पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/४६

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३६ काव्य में प्राकृतिक दृश्य में पूरा मैदान पड़ा हैं । आकृति-चित्रण का अत्यन्त उत्कर्ष वहाँ सम- झना चाहिए जहाँ दो व्यक्तियों के अलग-अलग चित्रों में हम भेद कर सके । जैसे, दो सुन्दरियो की ऑख, कान, नाक, भौं, कपोल, अधर, चिबुक इत्यादि सव अङ्गो को लेकर हमने वर्णन द्वारा दो अलग-अलग चित्र खीचे । फिर दोनो वर्णनों को किसी और के हाथ में देकर हमने उन दोनी स्त्रियों को उसके सामने बुलाया । यदि वह वतला दे कि यह इसका वर्णन है और यह उसका तो समझिए कि पूर्ण सफलता हुई । योरप के उपन्यासो में इस ओर बहुत कुछ प्रयत्न दिखाई पड़ता है , पर हमारे यहाँ अभी इधर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। मुद्रा चित्रित करने में गोस्वामी तुलसीदासजी अत्यन्त कुशल दिखाई पड़ते हैं। मृग पर चलाने के लिए तीर खींचे हुए रामचन्द्रजी को देखिए-- जटा-मुकुट सिर, सारस-नयननि गौहें तकत सुभैइ सिकोरे ।” इसी प्रकार राम के आगमन की प्रतीक्षा में शवरी-

  • छन भवन, छन चाहर विलकति पंथ भ्र, पर पानि कै ।”

पूर्वजनो की दीर्व परम्परा द्वारा चली आती हुई जन्मगत वासना के अतिरिक्त जीवन में भी बहुत से सरकार प्राप्त किए जाते हैं , जिनके कारण कुछ वस्तुओं के प्रति विशेष भाव अन्तःकरण में प्रतिष्ठित हो । जाते है । बचपन से अपने घर में या बाहर हम जिन दृश्यों को बराबर देखते आए, जिनकी चर्चा बराबर सुनते आए, उनके प्रति एक प्रकार का सुझाव मन में घर कर लेता है । हिन्दुओं के बालक अपने घर में राम-कृष्ण की कथाएँ और भजन सुनते आते हैं, इससे राम-कृष्ण के चरितो से सम्बन्ध रखनेवाले स्थानो को देखने की उत्कण्ठा उनमे बनी रहती है । गोस्वामीजी के इन शब्दों में यही उत्कण्ठा भरी है--