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चिन्तामणि

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चिन्तामणि मादिं तक तो खैरियत थी, पर जव उपन्यासों से इस तरह के वाक्य भरे जाने लगेगे जैसे--- ( १ ) उसके हृदय में अवश्व ही एक ललित कोना होगा जहाँ रतन ने स्थान पा लिया होगा । (२) वह उन लोगों में से न था जो घास को थोड़ी देर भी अपने पैरों तले उगने देते हों । तब हमारी भाप अपना कहाँ ठिकाना हुँदगी ? | आजकल कभी-कभी हिन्दी-हिन्दुस्तानी का झगड़ा भी उठी करता है। हमारे साहित्य की भाषा का स्वरूप क्या होना चाहिए ग्रह पचासो वर्ष पहले स्थिर हो चुका है उसमे फेरफार करने की कोई आवश्यकता नहीं । अपने साहित्य की भरा का स्वरूप हम वही रख सकते हैं जो वरावर से चला आ रहा है तथा जो उत्तरीय भारत के और भूखंखों के सापित्य की भापा के स्वरूप के मेल मे होए । हिन्दीहिन्दुस्तानी के सन्बन्ध में प्रो० धीरेन्द्र वर्मा ने अकेडग्री की ‘तिमाही पत्रिका में जो कुछ लिखा था उसे मैं खासा स्वप्नवाद समझता हूँ। ( ग्रेव में शाप सहानुभाव का बहुत अधिक समय ले चुका । इससे स्थान पर एक प्रकार से आप लोगों के धैर्य की पूरी परीक्षा हो गई। मेरी निस्सार और रूखी-सूखी बातों को इतनी देर बैठकर सुनना, अनुग्रह के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता हैं ? अाज अपने वर्तमान हिन्दी साहित्य के प्रशस्त प्रसार को देख मुझे उन दिनों का स्मरण हो रहा है जब थोडे से लोग किसी भव्य भविष्य की आग में हिन्दी की सेवा कर रहे थे । आज अपने को इतने बड़े और प्रभावशाली विद्न्मएदल के सामने खा पाकर मुझे तो ऐसा भासित हो रहा है कि वह भव्य भविश्य यही था । मेरी पुदी कामनाएँ तो अाज पूर्ण हो गई। पर जीवनक्षेत्र में कासना का अन्त नहीं । एक पूरी हुई, फिर दूसरी । जिन आँखो से मैंने इतना देखा उन्ही से अब अपने हिन्दीसाहित्य को विश्व की नित्य और अखण्ड विभूति से शक्ति, सौन्दर्य और मङ्गल का प्रभूत सञ्चय करके एक स्वतन्त्र ‘नव निधि के रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहता हैं। अपनी इस कामना को आप महानुभावों के सम्मुख प्रकट करके अब मैं क्षमा माँगता और धन्यवाद देता हुआ अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ।