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चिन्तामणि

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२४६ चिन्तामणि अर्थों पर उतना जोर न देकर उनकी नदि-शक्ति पर ही अधिक ध्यान देने का आग्रह किया गया है । इसका थोड़ा सा परिचय मैं आगे हूँगा । शब्द-शक्ति, रस, रीति और अलङ्कार---अपने यहाँ की ये बातें काव्य की स्पष्ट और स्वच्छ मीमांसा में कितने काम की हैं, मैं समझता हूँ, इसके सम्बन्ध में अब र अधिक कहने की आवश्यकता नहीं । देशी-विदेशी, नई-पुरानी सब प्रकार की कविताओं की समीक्षा का मार्गे इनका सहारा लेने से सुगम होगा । आवश्यकता इस बात की है। कि उत्तरोत्तर नवीन विचार-परम्परा द्वारा इन पद्धतियों की परिष्कृति, उन्नति और समृद्धि होती रहे । पर यह हो कैसे ? वर्तमान हिन्दीसाहित्य के क्षेत्र में कुछ लोग तो ऐसे हैं जो लक्षणों की पुरानी लकीर से जरा भी इधर उधर होने की कल्पना ही नहीं कर सकते । बेचारे नवीनतावादी अभी कलावाजी कर रहे हैं, उन्हें विलायती समीक्षा-क्षेत्र के उड़ते हुए लटको की उद्धरणी और योरप के ग्रन्थकारो की नाममाला जपने से फुरसत नहीं । अव रहे उच्च अधुिनिक शिक्षा-प्राप्त 'संस्कृत कालर' नामक प्राणी । वे तो भारतीय वाङमय में जो कुछ हो चुका है उसी को संसार के सामने–संसार का अर्थ आजकल योरप और अमेरिका लिया जाता है--रखने में लगे है । यही उनका परम पुरुपार्थ है। उन्हें अपने साहित्य को और आगे बढ़ाकर उन्नत करने से क्या प्रयोजन ? यहाँ तक तो मैंने अपने यहाँ की काव्य-मीमांसा की पद्धति का, पाश्चात्य समीक्षा-क्षेत्र के नाना वाद-प्रवादों से चली प्रवृत्तियो का तथा हिन्दी के आधुनिक साहित्य-क्षेत्र पर उन प्रवृत्तियो के भले-बुरे प्रभाव का वर्णन किया । पर ये प्रवृत्तियों पुरानी है—कुछ तो पचासो वर्ष ; कुछ सैकड़ों वर्ष पुरानी । पर, जैसा कि मैं कई जगह कह चुका हूँ, योरप में साहित्य की प्रवृत्तियाँ तो इधर कपड़े के फैशन की तरह जल्दी जल्दी चला करती हैं। वहाँ की इन पुरानी प्रवृत्तियों से गला