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चिन्तामणि

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चिन्तामणि | उपमाएँ देने में कालिदास अद्वितीय,समझे जाते हैं, पर वस्तु-चित्र को उपमा श्रादि को अधिक बोझ लादकर उन्होने भद्दा नहीं किया । उनका मेचदृत—विशेषकर पृर्वमेध–तो यहाँ से वहाँ तक एक मनोहर चिन्न ही है । ऐसा काव्य तो संस्कृत क्या, किसी भापा में भी शायद ही हो । जिनमें ऐतिहासिक सहृदयता है, देश के प्रकृत स्वरूप के साथ जिनके हृदय का सामञ्जस्य है, मेवदूत उनके लिए भावो का भरा-पूरा भण्डार है । जिनकी रुचि भ्रष्ट हो गई है, जो सर्वत्र उपमा, उत्प्रेक्षा ही हुँदा करते है, जो ‘अनूठी उक्तियो' पर ही वाह-वाह किया करते हैं, उनके लिए चाहे उसमें कुछ भी न हो । । कालिदास ने वन-श्री, पुर की शोभा आदि का ही वर्णन एक-एक ब्योरे पर दृष्टिले जाकर नही किया, उजाड़ खंडहरों का भी ऐसा ही वर्णन किया है, उनका ऐसा स्वरूप सामने रखा है जिसे अतीत स्वरूप के साथ मिलाने पर करुणा का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। कुश जब कुशावती मे जाकर राज्य करने लगे तब अयोध्या उजड़ गई। एक दिन रात को अयोध्या का अधिदेवता स्त्री का रूप धरकर उनके पास गया और अयोध्या की हीन दशा का अत्यन्त मर्मस्पर्शी शब्दो में वर्णन किया। उस प्रसङ्ग के केचन दो श्लोक नीचे दिए जाते हैं ; जिनसे सारे वर्णन का अनुमान पाठक कर लेगे कालान्तरश्यामसुधेपु नक्त इतस्तती रूढतृष्णाङ्करेषु । त एव मुक्तागुणशुद्धयोऽपि हम्र्येषु मूच्छन्ति न चन्द्रपादाः ।। रात्रविनाविष्कृतदीपभासः कान्तामुखश्रीवियुता दिवापि । तिरस्कियन्ते कृमितन्तुजालैर्विच्छिन्नधूमप्रसरा गवाक्षाः ।।*

  • समय के फेर से काले पड़े हुए चुनेवाले सन्दिरों में, जिनमें इधर-उधर घास के अङ्कर उगे हैं, रात्रि के समय मोती की माला के समान वे चन्द्रकिरणें अब प्रकाश नहीं करतीं । राग्नि में दीपक के प्रकाश से रहित और दिन में