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चिन्तामणि

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२३२ चिन्तामणि सम्बन्ध होता है । यो ही बोध मात्र कराने के लिए जिस रूप में बात कही जाती है. उसी रूप में रखने से भावानुभूति नहीं जगती । वात को ऐसे रूप में रखना पड़ता है जो भाव जगाने में समर्थ हो । इसी से कहा गया है कि “इतिवृत्तमात्रनिर्वाहेण नात्मपदलाभः ।" इस रूप में वात विना अलङ्कार के, बिना किसी प्रकार की अप्रस्तुत योजना के, भी कही जा सकती है। इसी से 'काव्यप्रकाश’ और ‘साहित्यदर्पण' में अलङ्कार काव्य का कोई नित्य अङ्ग नहीं माना गया है। प्रस्तुत बातें ज्यो की यो सादे रूप में भी कर भाव की बहुत अच्छी और स्वाभाविक व्यञ्जना कर देती हैं, जैसे, ठाकुर कवि का यह सर्वेया लीजिए या निरमोदिन रूप की सि उऊ उर हेतु न ठानति में हैं, चारहि चार विलोकि घरी घरी सूरति तो पहिचानति में है। टाकुर या मन को परतीति है ज ३ सनेह न मानति है, वित हैं नित मेरे लिए इतनी तो रिसेप के जानति है । इसमे अपने प्रेम का परिचय देने के लिए आतुर किसी नए प्रेमी के चित्त के ‘वितर्क' की कैसी सीधी-सादी व्यञ्जना है। इसमें आई हुई बाते प्रस्तुत होने पर भी 'इतिवृत्त मान्न' की दृष्टि से फालतू हैं। 'इतिवृत्ति का मतलब है इतनी ही तो बात है। 'इतनी ही तो बात है' कहनेवाला व्यर्थं वे सब बाते न कहने जायेगा जो सवैये मे हैं। भावना को गोचर और सजीव रूप देने के लिए, भाव की विमुक्ति और स्वच्छन्द गति के लिए, काव्य में वक्रता या वैचित्र्य अत्यन्त प्रयोजनीय वस्तु है, इसमे सन्देह नहीं । ‘खड़ी चोली' की कविता जिस रूखी-सूखी चेष्टा के साथ खड़ी हुई थी, उसमें काव्य की झलक बहुत कम थी । खड़ी बोली की कविताओं में उपमा-रूपक आदि के ढाँचे तो रहते थे पर लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और भाषा की विमुक्त स्वच्छन्द गति नहीं दिखाई देती थी । 'अभिव्यञ्जनवाद' के