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चिन्तामणि

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२२६ चिन्तामणि | सूधे मन, सूधे बचने, सूधी सय फरकृति ।। तुलसी सूधी सकल विधि, रघुवर-प्रेम-प्रसूति ॥ भारतीय परम्परा के सच्चे भक्त में दुराव-छिपाव की प्रवृत्ति नही होती ! उसे यह प्रकट करना नहीं रहता कि जो बातें मैं जानता हूँ उसे कोई विरला ही समझ सकता है, इससे अपनी वाणी को अटपटी श्री रहस्यमयी बनाने की आवश्यकता उसे कभी नही होती । वह सीधी-सादी सामान्य बात को भी रूपकों में लपेट कर पहेली बनाने और असम्बद्धता के साथ कहने नहीं जाता। बात यह है कि अपना प्रेम वह किसी अज्ञात के प्रति नहीं बताता है उसका उपास्य ज्ञात होता है। उसके निकट ईश्वर ज्ञात और अज्ञात दोनो हैं । जितना अज्ञात है उसे तो वह परमार्थान्वेपी दार्शनिकों के चिन्तन के लिए छोड़ देता है और जितना ज्ञात है उसी को लेकर वह प्रेम में लीन रहता हैं। नातपक्ष में यह सारा जगत् ब्रम का व्यक्त प्रसार है जिसके भीतर रक्षण श्रीर रञ्जन की नित्य कला भासमान रहती है। बाहर जगत् के बीच इस कला का दर्शन भक्ति का पक्ष है । अपने मन के भीतर हुँइना' यह योग का पक्ष हो । बाहर जगत् में जहाँ रक्षण और रञ्जन की यह कला भक्त को दिखाई पड़ती है वहाँ वह सिर झुकाता है। श्रीमद्भागवत में इस सिद्धान्त का स्पष्टीकरण हम पाते हैं। ब्रज के गोप इन्द्र की पूजा किया करते थे । श्रीकृष्ण ने नन्द से कहा कि इससे अच्छा तो यह है कि हम इस गोवर्द्धन पर्वत की पूजा करे, गायों की पूजा करे, ब्राह्मणो की पूजा करें । जो साक्षात् या सीधे पालन-पोपण रक्षण-रञ्जन करता दिखाई दे वही देवता है तस्मात्सम्पूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत् । असा येन वर्तेत तदेवस्य हि दैवतम् ॥ [ --भागवत, १०:२४:१८ । तस्माइवा ब्राह्मणानामधारभ्यतां मखः ।। यु इन्द्रयागसमारम्भस्तरयं साध्यता मखः ।। -भाग० १०:२४-२५