पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२२०

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद २१३ लक्ष्य के भीतर जीवन के ऊँचे से ऊँचे उद्देश्य आ जाते हैं । इसी लक्ष्य की साधना से मनुष्य को हृदय जव विश्वहृदय, भगवान् के लोकरक्षक और लोकरञ्जक हृदय, से जा मिलता है तब वह भक्ति में लीन कहा जाता है । उस दशा में धर्म-कर्म के साथ, और ज्ञान के साथ उसका पूर्ण सामञ्जस्य घटित हो जाता है। भक्ति, धर्म और ज्ञान दोनो की रसात्मक अनुभूति है। जिस धर्म की साधना में हृदय का योग नहीं वह शुष्क, नीरस और अधूरा है। इसी प्रकार जिस ज्ञान के साथ-साथ हृदय लगा नहीं चलता वह भी शुष्क, नीरस और अधूरा है-उसमें मिठास नही । मिठास न रहने का मतलब यह है कि ज्ञानी को ब्रह्म के केवल चित्स्वरूप का कुछ स्पर्श हुआ, आनन्दस्वरूप छूने को रह गया। यही बात गोस्वामी जी ने इस ढंग से कही है । ब्रह्म-पयानिधि, मंदर-ज्ञान, संत सुर अहि । | कथा सुधा मथि काढहीं, भकि-मधुरता जाहिः ।। ब्रह्म से गोस्वामी जी का अभिप्राय व्यक्त ब्रह्म----सिया-राम-मय सब जग'---से है । यह जगत् ब्रह्म का व्यक्त स्वरूप है और समष्टि रूप मे शाश्वत और अनन्त है। विशेष रूप अनित्य है, पर रूप-परम्परा नित्य हैं । ज्ञान इस रूप-सागर का मन्थन करके अनेक कथाएँ या तथ्य निकालता है और हृदय उनको लिम्बन के रूप में सामने रखकर भक्ति की मधुरता का अनुभव करता है। इस प्रकार जब ज्ञान और भक्ति-बुद्धि और हृदय-दोनों सहयोगी होकर काम करें तब अन्तःकरण की पूर्णता समझनी चाहिए । जिस प्रकार हृदय के योग के बिना, भक्ति के बिना, ज्ञान को गोस्वामी जी ने मधुरता-रहित और नीरस कहा है, उसी प्रकार धर्माचरण और सदाचार को भी कडुवा कहा है सूर सुजान सपून सुलच्छन गनियत गुन-गरुवाई । निनु हरि-भजन ईंदारुन के फल तजत नहीं करुवाई ॥