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चिन्तामणि

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चिन्तामणि केवल मञ्जरी-मण्डित रसालों, प्रफुल्ल कदम्बों और सघन मालती-कुलों का ही दर्शन प्रिय लगता है, ग्रीष्म के खुले हुए पटपर खेत और मैदान, शिशिर की पन्न-विहीन नङ्गी वृक्षावली और झाड़-बबूल आदि जिनके हृदय को कुछ भी स्पर्श नहीं करते उनकी प्रवृत्ति राजसी समझनी चाहिए । वे केवल अपने विलास या सुख की सामग्री प्रकृति में हूँढते है। उनमे उस ‘सत्त्व की कमी है जो सत्ता-मात्र के साथ एकीकरण की अनुभूति द्वारा लीन करके आत्मसत्ता के विभुत्व का आभास देती है। सम्पूर्ण सत्ता, क्या भौतिक क्या आध्यात्मिक, एक ही परम सत्ता या परम भाव के अन्तर्गत है अतः ज्ञान या तर्क-बुद्धि द्वारा हम जिस अद्वैत भाव तक पहुँचते है उसी भाव तक इस ‘सत्त्व' गुण के बल पर हमारी रागात्मिका वृत्ति भी पहुँचती है। इस प्रकार अन्ततः दोनो वृत्तियों का समन्वय हो जाता है। यदि हम ज्ञान द्वारा सर्वभूत को आत्मवत् जान सकते है तो रागात्मिका वृत्ति द्वारा उसका अनुभव भी कर सकते हैं । तर्क-बुद्धि से हारकर परम ज्ञानी भी इस ‘स्वानुभूति' का आश्रय लेते है । अतः परमार्थ दृष्टि से दर्शन और काव्य दोनो अन्तःकरण की भिन्न-भिन्न वृत्तियो का आश्रय लेकर एक ही लक्ष्य की ओर ले जानेवाले है । इस व्यापक दृष्टि से काव्य का विवेचन करने से लक्षण-ग्रन्थों में निर्दिष्ट सङ्कीर्णता कहीं-कही बहुत खटकती है । चन, उपवन, चाँदनी इत्यादि को दाम्पत्य रति के उद्दीपन-मात्र मानने से सन्तोष नहीं होता। पहले कहा जा चुका है कि रस के संयोजक जो विभाव आदि हैं। वे ही कल्पना के प्रधान क्षेत्र है। कवि की कल्पना का पूर्ण विकास उन्हीं में देखना चाहिए । पर वहॉ कल्पना को कवि की अनुभूति के आदेश पर चलना पड़ता है, उसकी श्रेष्ठता कवि की सहृदयता से सम्बन्ध रखती है, अतः उस कृत्रिमता के काल में, जिसमे-कविता केवल अभ्यास-गम्य समझी जाने लगी, कल्पना का प्रयोग काव्य का प्रकृत