पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२०२

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--- - -- - काव्य में अभिव्यञ्जनवाद् १६५ चाहे । कोरी कहानी की अलग अलग घटनाओं में मुन रसता नहीं ; उसके किसी खण्ड पर कुछ देर जमा नहीं रहना चाहता । कहानी सुननेवाला कहता है, तब क्या हुआ ?'; कविता सुननेवाला, “जरा फिर तो कहिए।' अर्थ के मैदान में ‘सुन्दर' शब्द की दौड़ उतनी नहीं है जितनी ‘रमणीय' शब्द की। दूसरी बात यह है कि सुन्दर शब्द बाह्यार्थ की ओर सङ्केत करता जान पड़ता है और रमणीय शब्द हृदय की ओर । इसी से काव्य की समीक्षाओं में ‘सुन्दर' शब्द का प्रयोग करके, कभी कभी फिर यह कहने की जरूरत पड़ा करती है कि सौन्दर्य तो मेन की भावना है, किसी बाहरी वस्तु में स्थित कोई गुण नहीं ।' यह ‘सुन्दर' शब्द काव्यानुभूति के स्वरूप को सङ्कुचित करता है। प्रत्येक कविता का ग्रहण सौन्दर्यानुभूति के रूप में नहीं होता। क्रोचे या अपने यहाँ के चमत्कारवादी और वक्रोक्तिवादी के अनुसार यदि हम अभिव्यञ्जना या कल्पना की उड़ान को ही सब कुछ मानें तो भी ‘सुन्दर' शब्द बिना खींचतान के सर्वत्र काम नही देता । । बहुत सी चक्तियों से केवल एक प्रकार का चमत्कारपूर्ण प्रसादन होता है। | संसार में मनुष्य-जाति के बीच कविता हृदय के भावों को ले कर ही उठी है। प्रेम, उत्साह, आश्चर्य, करुणा आदि की व्यञ्जना के लिए ही आदिम कवियों ने अपना स्निग्ध कण्ठ खोला था । तब से आज तक संसार की प्रत्येक सच्ची कविता की तह में भावानुभूति आत्मा की तरह रहती चली आ रही है। काव्य में भाव के आलम्बन ( कभी कभी उद्दीपन ) के रूप में ही जगत् की किसी वस्तु को ग्रहण हो सकता है, और किसी रूप में नहीं । कविता-देवी के अन्तःपुर में ‘सुन्दर' 'प्रिय' होकर ही प्रवेश कर सकता है। जो सुन्दर प्रेम का आलम्बन होता है, जिसकी ओर हमारी रागात्मिका वृत्ति प्रवृत्त होती है, जिसका स्मरण आने पर हृदय द्रवीभूत हो सकता है चाहे वह व्यक्ति या वस्तु हो, चाहे प्रकृति को कोई खण्ड----वही काव्य का