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चिन्तामणि

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१६४ चिन्तामणि यहाँ तक तो क्रोचे का ‘अभिव्यञ्जनावाद' हुआ जिसे जहाँ तक संक्षेप में और जहाँ तक स्पष्ट रूप में हो सका मैंने आप महानुभाव के सम्मुख रखा । ‘कल्पना आध्यात्मिक जगत् का आभास है’, ‘कला कला ही के लिए है, कल्पना का लोक ही निराला है’, ‘काव्य नूतन सृष्टि है, प्रकृति के किसी खण्ड का अनुकरण नही’, ‘प्रकृति को भावना के नये रूप-रंग में दिखाना ही काव्य है', ‘काव्य सौन्दर्य की साधना है' इत्यादि अनेक वादो और प्रबादी का समन्वय इसके भीतर मिलता है । इसी से इसका थोड़ा विवरण देकर मैंने आप लोगों का समय लिया । आज-कल हमारे साहित्य के समीक्षा-क्षेत्र में भी बड़े यत्र से गृहीते जो अनेक चमत्कारपूर्ण वाक्य, शब्द और उक्तियाँ बिखरी हुई मिला करती हैं, उनके मूल-स्थान और तात्पर्य का पता-ठिकाना भी इसमें मिलेगा ।योरप मे 'कला' और 'सौन्दर्य की पुकार किस प्रकार काव्य-समीक्षा को भी इस 'वाद' की ओर धीरे धीरे घसीटती रही, यह पहले कहा जा चुका है। ‘सौन्दर्य-शास्त्र में जिस प्रकार चित्रकला, मूर्तिकला आदि शिल्पो का विचार होने लगा उसी प्रकार काव्य का भी । सबसे बेढंगी बात तो यही हुई । अतः इस वाद का प्रतिषेध करने के पहले मैं यही कह देना चाहता हूँ कि सौन्दर्य-शास्त्र', जिसके भीतर इसका निरूपण हुआ है,, काव्यसम्बन्धी मीमांसा का ठीक स्थान ही नहीं। पहले तो सौन्दर्य-शास्त्र अभी कोई ठीक-ठिकाने का शास्त्र नहीं-कभी होगा, यह भी नहीं कहा जा सकता । यदि हो भी तो काव्य से उसका सम्बन्ध नहीं । | सच बात तो यह है कि काव्य के स्वरूप-लक्षण में ‘सुन्दर' शब्द उतने काम का नहीं जितना समझा जाने लगा है। इसी से पण्डितराज ने अपने काव्य-लक्षण मे ‘सुन्दर' शब्द का प्रयोग न करके रमणीय शब्द का प्रयोग किया है। रमणीय का अभिप्राय है जिसमे मन रमे अर्थात् जिसे मन अपने सामने कुछ देर रखना या बार बार लाना